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________________ * आगम की परिभाषा : आगम शब्द “आ” उपसर्ग" एवं "गम" धातु से निष्पन्न हुआ है । "आ" उपसर्ग का अर्थ पूर्ण है और "गम" का अर्थ गति या प्राप्ति है। इस संदर्भ में आचार्यों ने आगम की जो परिभाषाएँ दी है, उनमें से कुछ इस प्रकार है *जिससे वस्तु तत्व (पदार्थ रहस्य) का परिपूर्ण ज्ञान हो, वह आगम है। * जो तत्व आचार परंपरा से वासित होकर आता है वह आगम है। *जिससे पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो, वह आगम है। आप्त वचन से उत्पन्न अर्थ (पदार्थ) ज्ञान आगम कहा जाता है। उपचार से आप्त वचन भी आगम माना जाता है। आप्त का कथन आगम है। जिससे सही शिक्षा प्राप्त होती है, विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है वह शास्त्र आगम कहलाता है । जैन दृष्टि से आप्त कौन है ? प्रस्तुत प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि जिन्होंने मोहादि चार घाती कर्मों को क्षय कर सर्वज्ञ वीतराग तीर्थंकर अवस्था को प्राप्त कर ली है वे आप्त पुरुष है और उनके उपदेश एवं वाणी ही जैनागम है। क्योंकि वक्ता के साक्षात् दर्शन एवं वीतरागता के कारण दोष की संभावना नहीं होती और न पूर्वापर विरोध होता है। आचार्य भद्रबाहु स्वामी आवश्यक निर्युक्ति में कहते हैं- “तप नियम ज्ञान रुप वृक्ष के ऊपर आरुढ होकर अनंतज्ञानी तीर्थंकर भगवान भव्यात्माओं के विबोध के लिए ज्ञान कुसमों की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धि-पट में उन सकल कुसुमों को झेलकर प्रवचनमाला में गूंथते हैं। * आगम की भाषा : वर्तमान काल में आगम साहित्य की भाषा अर्धमागधी है। भगवान महावीर स्वामी अर्धमागधी भाषा में देशना देते थे। क्योंकि यह जन समूह की आम भाषा थी । अर्धमागधी यह प्राकृत भाषा का ही एक रुप है। मगध के आधे भाग में बोली जाने के कारण यह भाषा अर्धमागधी कहलाती है। इसमें मागधी के साथ अन्य अठारह देश भाषाओं के लक्षण मिश्रित है, इसलिए भी इसे अर्धमागधी कहते है। * आगम वाचना : विशेषावश्यक भाष्य में आगम के अनेक एकार्थक शब्द उपलब्ध होते हैं - सूत्र, ग्रंथ, सिद्धांत, प्रवचन, आगम, आज्ञा, उपदेश, आप्तवचन, जिनवाणी आदि जब तक लेखन परंपरा का विकास नहीं हुआ था तब तक ज्ञान का एक मुख्य आधार था श्रवण ! शिष्य अपने गुरु के मुख से सुनकर ज्ञान ग्रहण करते थे। इस प्रकार श्रुत परंपरा पर आधारित इस ज्ञान का एक नाम था - श्रुत। श्रुत का अर्थ है - सुना हुआ। जो गुरु-मुख से सुना गया हो, वह श्रुत है। भगवान महावीर स्वामी के उपदेशों को उनके शिष्यों ने और उनसे उनके शिष्यों श्रवण किया । श्रुत की यह परंपरा बहुत लम्बे समय तक चलती रही, जो संपूर्ण श्रुत को धारण कर लेते थे, वे श्रुतकेवली कहलाते थे, भगवान महावीर की परंपरा में अंतिम श्रुतकेवली थे आचार्य भद्रबाहुस्वामी । आचार्य भद्रबाहुस्वामी के पश्चात् श्रुत की धारा क्षीण होने लगी। जब आचार्यों ने देखा कि काल के Jain Education International 15 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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