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* जैन आगम साहित्य * * आगमो का महत्व एवं प्रमाणिकता :- प्रत्येक धर्म परंपरा में धर्म ग्रंथ या शास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान होता है, क्योंकि उस धर्म के दार्शनिक सिद्धांत और आचार व्यवस्था दोनों के लिए शास्त्र ही एक मात्र प्रमाण होता
हैं। हिन्दूधर्म में वेद का, बौद्ध धर्म में त्रिपिटक का, पारसीधर्म में अवेस्ता का, ईसाई धर्म में बाइबल का और इस्लाम धर्म में कुरान का जो स्थान है, वही स्थान जैन धर्म में आगम साहित्य का है। आगम साहित्य को न तो वेद के समान अपौरुषेय माना गया अर्थात् किसी व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित नहीं है और न बाइबल या कुरान के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का संदेश है। अपितु वह उन तीर्थंकरों की कल्याणकारी वाणी का संकलन है, जिन्होंने अपनी तपस्या और साधना के द्वारा केवलज्ञान का प्रकाश प्राप्त किया था ! जैनों के लिए आगम
जिनवाणी है, आप्त वचन है। उनके धर्म-दर्शन व साधना का आधार हैं।
केवलज्ञान के पश्चात् तीर्थंकर अर्थ रुप में देशना देते हैं और गणधर उसे सूत्र रुप में गूंथते हैं। गणधरों के द्वारा रचित आगमों को अंग प्रविष्ट या द्वादशांगी कहते हैं। जिनवाणी का ही आश्रय लेकर विभिन्न स्थविरों और पूर्वधर आचार्यों के द्वारा रचित आगमों को अंग बाह्य या अनंग प्रविष्ट कहते हैं। इस प्रकार जैन आगम पौरुषय (पुरुषकृत) अर्थात् किसी व्यक्ति के द्वारा रचित है और काल विशेष में निर्मित है। ___जैन आचार्यों ने एक अन्य अपेक्षा से विचार करते हुए अंग आगमों को अर्थात् द्वादशांगी को शाश्वत भी कहा है। तीर्थंकरों की परंपरा तो अनादि काल से चली आ रही है और अनंत काल तक चलेगी, कोई भी काल ऐसा नहीं जिसमें तीर्थंकर नहीं होते हैं। महाविदेह क्षेत्र में हमेशा चौथा आरा ही रहता है और हमेशा कम से कम बीस तीर्थंकर विचरण करते हैं और सभी जगत के तीर्थंकर शाश्वत सत्यों का ही अर्थ से एक देशना देते हैं। अतः इस दृष्टि से जैन आगम भी अनादि अनंत है। प्रत्येक तीर्थंकरों की आत्मा भिन्न भिन्न होती है किंतु उनके उपदेश समान रुप होते हैं और उनके समान उपदेशों के आधार पर रचित ग्रंथ भी अर्थ से समान ही होते हैं। तीर्थंकरों के उपदेश में चाहे शब्द रुप में अर्थात् वाक्यरचना की दृष्टि से भिन्नता हो सकती है, किंतु अर्थ रुप से भिन्नता नहीं होती है। अतः अर्थ या कथन की दृष्टि से यह एकरुपता ही जैनागमों को प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनंत सिद्ध करती है।
हर जीव की भूमिका के अनुरुप उनके आत्मकल्याण हेतु श्रेष्ठतम उपायों का निरुपण आगमों में किया गया है। एक तरफ उत्सर्ग मार्ग बताया गया है दूसरी तरफ व्यवहारिक वास्तविकता का स्वीकार करते हुए अपवाद मार्ग बताया है। आगमों में जीव को आत्मकल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए बहुत गहरी प्रेरणा दी गयी है। साधना पथ पर विचलित हो रहे जीव को पुनः स्थिर करने के श्रेष्ठतम उपायों को भी आगमों में बताए गए हैं। आगमों में जगत के सत्यों को मनुष्य की बुद्धि शक्ति की मर्यादा को देखते हुए नय निक्षेप आदि प्रकार से बडी खुबी से सर्वग्राही तरीके से बताया गया है।
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