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2. विनम्रता :- विनम्रता का अभिप्राय दब कर चलना या डर कर रहना नहीं है। विनम्रता का अर्थ है अन्तस् से झुकना। झुकने से हृदय के द्वार खुलते हैं और ऐसा विनय भाव ही मनुष्यायु का बंध कराता है।
___3. दयालुता :- दूसरों के दुःख में दुःखी होना दया है। दयापूर्ण हृदय से सद्भाव एवं सहयोग का जन्म होता है। अपने सुख का त्याग करके भी दूसरों के कष्टों को दूर करने का भाव जिस हृदय में हो वह मनुष्यायु का बंध करता है।
4. ईर्ष्या रहित होना :- ईर्ष्या एक प्रकार
की जलन है जिसका निशाना दूसरों की तरफ होता है किंतु व्यक्ति स्वयं घायल हो जाता हैं ईर्ष्या की अग्नि समस्त सुखों को जली देती है। दूसरों के सुखों को देखकर जो व्यक्ति जलता -
कुढता है उसे मनुष्यायु प्राप्त नहीं होती।
* देवायुष्य :- जिस कर्म के उदय से आत्मा को अमुक समय तक देवगति में जीवन व्यतीत करना पडता है उसे
देवायु कहते हैं। देव - भव की निश्चित आयु पूरी होने पर देवता वहां चाह कर देवायुष्य बंध के चार कारण : भी एक क्षण अधिक नहीं रह सकते। देवायुष्य बंध के चार कारण है :- 1. सराग
- संयम 2. संयमासंयम 3. बाल तप और 4. अकाम
निर्जरा 1. सराग - संयम :- संयम का अर्थ है आत्मा को पापों से दूर कर लेना। हिंसादि सभी पापों से विरति रुप चारित्र ग्रहण कर लेने पर भी जब तक राग या कषाय का अंश शेष है तब तक वह संयम शुद्ध नहीं होने से उसे सराग - संयम कहते हैं। शुद्ध संयम से कर्मक्षय होता है किंतु रागयुक्त संयम होने के कारण देवायुकर्म का बंध
होता है। ___2. संयमासंयम :- इसका अर्थ है कुछ संयम और कुछ असंयम। इसे देशविरति चारित्र कहते हैं। श्रावक के व्रत में स्थूल रुप से हिंसा, झूठ, चोरी आदि का प्रत्याख्यान होता है किंतु सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों की आरम्भजा हिंसा का सर्वथा त्याग नहीं होता। ऐसे संयमासंयम का पालन करने वाला गृहस्थ भी देवायु का बंध करता है।
____3. बाल तप :- इसका अर्थ है अज्ञान युक्त तप या सम्यक् ज्ञान से रहित तप जिस तप में आत्मशुद्धि का लक्ष्य न होकर अन्य कोई भौतिक या लौकिक लक्ष्य हो उसे बाल तप कहते हैं। जैसे धूनी रमाना, वृक्षों के साथ स्वयं को उलटा बांध देना, ठण्डे पानी में खडे रहना, महीनों तक तलघर या गुफा में
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