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________________ * आहार शुद्धि* जैन दर्शन का लक्ष्य अनाहारी पद अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने का है। अनादि काल से आत्मा कर्मवश शरीर का निर्माण करती है और इसे टिकाने के लिए नित नया आहार लेती है। आहार से रक्त आदि धातुओं का निर्माण होता है और इसी के अनुसार विचारधारा का निर्माण होता है। आत्मा के परिणाम शुद्ध रखने के लिए खाद्य पदार्थों की शुद्धि अति आवश्यक है। * आहार विवेक :- अनादिकाल से देहधारी जीव को आहारसंज्ञा, रस, स्वाद की वृत्ति न्यूनाधिक अंश में सताती है। इस वृत्ति के अनियंत्रित होने पर स्वास्थ्य हानि होती है। रोग के कारण जीवन पराधीन होता है असमाधिमरण होता है और फलस्वरुप परलोक में आत्मा की दुर्गति होती है। रसलोलुपता के दण्ड स्वरुप असंख्य, अनंत काल तक ऐकेन्द्रिय पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय में भ्रमण करना पडता है। अतः शरीर के विकास, मन की निर्मलता और आत्मा के ओजस्व को प्रगटाने के लिए आहार में विवेक आवश्यक है। * आहार के प्रकार :- आहार अर्थात् भोजन सामग्री चार प्रकार की है :- अशन, पान, खादिम, स्वादिम भोजन में लिए जानेवाले खाद्य पदार्थों के संख्या अनेक है। युगलिक युग से लेकर आज तक मनुष्य ने चित्त की परिणितियों एवं संयोगों के चलते अनेक प्रयोगों द्वारा विविध रसवृतियों का निर्माण किया है। इन पदार्थों के भी दो विभाग किया जा सकते है। * भक्ष्य :- खाने योग्य पदार्थ जैसे वनस्पति. अनाज. औषधि आदि। * अभक्ष्य :- नहीं खाने योग्य पदार्थ जैसे कंदमूल, पाऊ, बटर, बिस्कीट, आचार, मांस, मदिरा आदि वस्तुएं। * आहारशुद्धि और मन :- आहार का संबंध जितना शरीर के साथ है उतना ही मन के और जीवन के साथ भी है। कहां भी है जैसा अन्न वैसा मन और जैसा मन वैसा जीवन। साथ ही जैसा जीवन वैसा मरण। आहार शुद्धि से विचार शुद्धि और विचार शुद्धि से व्यवहार में शुद्धि आती है। दूषित अभक्ष्य आहार ग्रहण करने से मन और विचार दूषित होते हैं। अतः सात्विक गुणमय जीवन व्यतीत करने के लिए एवं अनेक दोषों से बचने के लिए भक्ष्य - अभक्ष्य व्यवहार के गुण दोषों का परिशीलन करना आवश्यक है। * भक्ष्य आहार से लाभ :-- * शुद्ध सात्विक आहार से अनंत त्रस व स्थावर जीवों को अभयदान प्राप्त होता है। * मन प्रसन्न, सात्विक बनता है। * शरीर निरोगी, सुंदर बनता है। * त्याग - तप आदि के संस्कार का आत्मा में बीजारोपण होता है। * जीवन - मरण समाधिमय बनता है। * परलोक सद्गतिमय बनता है। * सातावेदनीय कर्म का बंध होता है। * अभक्ष्य आहार से हानि : * अनंत त्रस व स्थावर जीवों की हिंसा होती है। * मन के परिणाम कठोर बनते हैं। dowludwigathedrary.orgh 45
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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