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कहलाता है।
21. अज्ञान परिषह :- ज्ञान प्राप्ति के लिये अथक प्रयास, तपस्या तथा ज्ञानाभ्यास करने पर भी ज्ञान की प्राप्ति न होने पर अपने आप को पुण्यहीन, निर्भाग मानकर खिन्न न होना, अपितु ज्ञानावरणीय कर्म का उदय समझकर चित्त को शांत रखना, अज्ञान परिषह है।
22. सम्यक्त्व या दर्शन परिषह :- नाना प्रकार के प्रलोभन अथवा अनेक कष्ट व उपसर्ग आने पर भी अन्य पाखंडियों के आडम्बर पर मोहित न होकर सर्वज्ञ प्रणीत धर्म तत्त्व पर अटल श्रद्धा रखना, शास्त्रीय सूक्ष्म अर्थ समझ में न आने पर उदासीन होकर विपरीत भाव न लाना, सम्यक्त्व / दर्शन परिषह है।
* किस कर्म के उदय से कौन-सा परिषह होता है
* ज्ञानावरणीय :- प्रज्ञा, अज्ञान
* अंतराय : अलाभ
* दर्शन मोहनीय :- सम्यक्त्व / दर्शन
पुरस्कार
* चारित्र मोहनीय :- अचेलक, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार - * वेदनीय : :- क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल एक साथ एक जीव को 1 से लेकर 19 परिषह संभव है। 19 कौन सी
:- उष्ण, शय्या,
+ 17 शेष
शीत
चर्या,
19 =
+ 17 * पांच चारित्र
खाली • साधक जीवन का मूलाधार चारित्र है । चय यानि आठ कर्म का चय - संचय, उसे रिक्त करनेवाले अनुष्ठान का नाम चारित्र है। अर्थात् आत्मिक शुद्ध दशा में स्थिर रहने का प्रयत्न करना ही चारित्र है। उत्तराध्ययन सूत्र में चारित्र की परिभाषा करते हुए कहा गया है।
एयं चयरित्तकरं चारितं होई आहियं
निषधा
+ 1
1
आत्मा का पूर्व संचित कर्मों को दूर करने के लिए सर्व पाप रुप क्रियाओं का त्याग करना, सम्यक् चारित्र है | चारित्र पांच प्रकार का है।
1. सामायिक चारित्र 2. छेदोपस्थापनीय चारित्र 3. परिहार विशुद्धि चारित्र
4. सूक्ष्म संपराय चारित्र और 5. यथाख्यात चारित्र ।
1. सामायिक चारित्र : सम् समता भावों का, आय लाभ हो जिसमें, समता का
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लाभ हो वह सामायिक है। समभाव में स्थित रहने के लिए संपूर्ण अशुद्ध या सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिक चारित्र है। इसके 2 भेद हैं- इत्वारिक यावत्कथिक।
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