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________________ करना, अचेल परीषह है। 7. अरति परिषह :- अंगीकृत मार्ग में अनेक कठिनाइयों के कारण अरुचि का प्रसंग आने पर भी मन में अरुचि - अप्रसन्नता वैर भाव न लाते हुए धैर्यपूर्वक संयममार्ग में रुचि रखते हुए दृढ रहना अरति परिषह है। 8. स्त्री परिषह : - पुरुष या स्त्री साधक को अपनी साधना में विजातीय आकर्षण या मोह का प्रसंग आने पर न ललचाना, समभाव एवं ज्ञानबल से मन को मोडना, स्त्री परिषह कहलाता है। 9. चर्या परिषह :- चर्या अर्थात् चलना, विहार करना। चलने में जो थकावट होती है तथा विहार के समस्त कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना तथा मासकल्प की मर्यादानुसार विहार करना चर्या परिषह कहलाता है। 10. निषधा परिषह :- श्मशान, शून्य, गृह, गुफा आदि में ध्यान अवस्था में मनुष्य - पशु - देव द्वारा किसी भी प्रकार का अनुकूल अथवा प्रतिकूल उपसर्ग आने पर उससे बचने के लिये उस स्थान को छोडकर न जाना बल्कि उन उपसर्गों को दृढतापूर्वक सहन करना निषधा परिषह है। 11. शय्या परिषह :- सोने के लिए उंची - नीची कठोर जमीन मिलने पर भी मन में किसी प्रकार का द्वेष भाव न लाकर सहजता पूर्वक स्वीकार कर लेना, शय्या परिषह है। 12. आक्रोश परिषह :- कोई अज्ञानी गाली दे, कटुवचन कहे, तिरस्कार या अपमान करें तब भी उससे द्वेष न करना, सत्कार समझकर प्रसन्नतापूर्वक सहन करना आक्रोश परिषह है। 13. वध परिषह :- कोई अज्ञानी पुरुष साधु को डंडे से, लाठी या चाबुक से मारे - पीटे अथवा हत्या भी कर दे तब भी मन में किञ्चित रोष न लाना, वध परिषह है। 14. याचना परिषह :- साधु कोई भी वस्तु मांगे बिना ग्रहण नहीं करता। उसकी प्राप्ति के लिए मैं राजा था, धनाढ्य था इत्यादि मान एवं अहं का त्याग करके घर - घर से भिक्षा मांगकर लाना, याचना करते समय अपमान व लज्जा आदि को जीतना, याचना परिषह है। 15. अलाभ परिषह :- मान तथा लज्जा का त्याग कर घर घर भिक्षा मांगने पर भी न मिले तो लाभान्तराय कर्म का उदय जानकर शांत रहना, दुःखी अथवा उत्तेजित न होना, अलाभ परिषह है। 16. रोग परिषह :- व्याधि होने पर चिकित्सा शास्त्र विधि अनुसार करना रोग दूर न हो तो व्याकुल न होना। शरीर के मोह में पडकर व्याधि आदि के निवारण के लिए सदोष चिकित्सा जिसमें जीव - हिंसा होती हो, उसका प्रयोग न करें, अपने कर्म का विचार करके समतापूर्वक सहन करना, रोग परिषह कहलाता है। 17. तृण - स्पर्श :- तृण आदि के बने संथारे में या अन्य समय में तृण आदि का तीक्ष्णता या कठोरता का अनुभव होने पर भी मृदु - शय्या के स्पर्श जैसी प्रसन्नता रखना तृण - स्पर्श है। 18. मल परिषह :- साधु के लिए स्नान शृंगार वर्जित है और शृंगार विषय का कारण रुप है, अतः शरीर पर पसीने के कारण मैलादि जमने पर दुर्गंध आती हो तब भी उसे दूर करने के लिए स्नानादि की इच्छा न करना, मल परिषह है। 19. सत्कार - पुरस्कार :- सामाजिक, धार्मिक, राष्ट्रीय सत्कार सम्मान प्राप्त होने पर भी मन में हर्ष तथा गर्व । न करना और न मिलने पर खेद न करना, सत्कार - पुरस्कार परिषह है। 20. प्रज्ञा परिषह :- प्रखर बुद्धि होने पर भी गर्व न करना और बुद्धि कम होने पर खेद न करना, प्रज्ञा परिषह Jain Education International For Person e use only www.jainellorary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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