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लिए, ग्लान तपस्वियों की सेवा के लिए, बीमारी तथा विशेष लाभ के कारण अधिक काल पर्यन्त भी मुनि एक स्थान पर ठहर सकते हैं। बावीस तीर्थंकरों के मुनियों का कोई नियत काल नहीं होता, एक ही स्थान पर महीना, दो तीन महीना या इससे भी अधिक ठहर सकते हैं। 10. पर्युषण कल्प :- बारिश हो अथवा न हो, योग्य क्षेत्र प्राप्त होने पर मुनि चौमासा ठहरते है, कदाचित योग्य क्षेत्र न हो तो भी भादों शुद्धि पंचमी से 70 दिन पर्यन्त एक स्थान पर अवश्य ठहरना होता है, यह श्री आदेश्वर भगवान व श्री महावीर प्रभु के साधुओं का आचार है, बावीस प्रभु के मुनियों के लिए कोई नियतकाल नहीं है।
उपरोक्त दस कल्पों में से 1. अचेलत्व 2. औद्देशिक 3. प्रतिक्रमण 4. राजपिण्ड 5. मासकल्प 6. पर्युषण का कल्प ये छः कल्प अस्थिर कल्प कहे जाते हैं, कारण कि ये प्रथम व अंतिम तीर्थंकरों के शासन में नियमितरुप माने जाते हैं और बावीस भगवंतों के शासन में अनियत है। 1. शैय्यातरपिण्ड 2. चार महाव्रत 3. ज्येष्ठ धर्म 4. परस्पर वंदन व्यवहार - ये चार कल्प स्थिर कल्प कहे
र्व तीर्थंकरों के शासन में ये समानता से माने जाते हैं | बावीस तीर्थंकरों के साधुओं के जो आचार है वे महाविदेह के तीर्थंकरों के साधुओं के भी आचार होते हैं। __पहले व अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं में एवं शेष बाईस तीर्थंकरों के साधुओं में यह आचार भेद होने में सिर्फ जीव विशेष ही कारणभूत है।
प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु - जड (सरल और बेसमझ) होते थे, उनको जितना कहा जाता, उतना ही समझते थे, परंतु विशेष नहीं समझ सकते, श्री महावीरस्वामी के तीर्थ के जीव वक्र और जड है (उद्धत और मूर्ख होते हैं) वे समझाने से समझ लेने पर भी झूठ (गलती) स्वीकार नहीं करते, कुर्तक करके अपना बचाव करते हैं
और बीच के बावीस तीर्थंकरों के साधु ऋजुप्राज्ञ (सरल और समझदार)होते है, अर्थात् संकेत मात्र से वे संपूर्ण बात समझ लेते हैं। इसी वजह से पहले व अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं के तथा बीच के बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के आचार में भेद हुआ।
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