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________________ नहीं थी। जिसको जितना मिला था, उसमें आनंद और संतोष का अनुभव था। ज्येष्ठ भ्राता भरत का संदेश सुनकर अट्ठाणुं भाईयों ने विचार विमर्श किया। एक भाई ने कहा " क्या हम उनकी सत्ता स्वीकार कर अपने राज्य को उसमें विलीन कर दें और अपनी स्वतंत्रता को मिटा दें ? यह भी तो हमारे क्षत्रियत्व का गौरव नहीं है। समझौता करें या संघर्ष दोनों बातें हमारे लिये सहज नहीं है। उन्होंने सोचा - पिता ऋषभदेव भगवान ही हमें सही राह दिखायेंगे। वे सब चल पडे समवसरण की ओर। परमात्मा को वंदन कर निवेदन किया परमात्मन् हम सभी सुख शांति से जीवन जी रहे हैं। हम संतुष्ट है अपने आपसे । भाई भरत हमारे राज्य को हडपना चाहता हैं, हम क्या करें भगवन् ! संघर्ष या सेवा ? - प्रभु आदिनाथ ने कहा - वत्स ! संसार में व्यक्ति जिसे सुख का कारण मानता है, वही दुःख का कारण बनता हैं जहां संसार है, वहां तनाव और टकराव है। - युद्ध से समस्या का न निराकरण हो सकता है, न निवारण। संघर्ष से संघर्ष बढता है। शत्रुता बढती है। समस्या का निराकरण अपने आपको, अपनी आत्मा को, आत्मा के नित्यानंद को प्राप्त करने में है। तुम अपनी आत्मा की अधीनता स्वीकार करों और बन जाओ अपने अनंत आत्म साम्राज्य के सम्राट् संतोष, प्रेम और सहजानंद में है। मेंदूत का आगमन हुआ। राजन् आर्य बाहुबली ने आपके निवेदन को ठुकरा दिया है। भरत और बाहुबली दोनों युद्ध पर ऊपर आये। युद्ध 12 वर्ष लम्बा चला। और दोनों की सेना के अनेक मनुष्यों का संहार हुआ, मगर दोनों में से किसीकी भी हार जीत न हुई । महा जीवहिंसा न हो इसलिए इन्द्रमहाराज आये और दोनों भाइयों को क्लेश निवारण के लिए न्याय युद्ध का उपदेश दिया। और पांच प्रकार के युद्ध कायम किये। परमात्मा की यथार्थ वाणी सुनकर अट्ठाणुं राजाओं को वैराग्य हो गया और प्रवजित होकर चल पडे वीतराग के पथ पर वीतरागी बनने के लिए। जब अट्ठाणुं भाईयों के दीक्षित होने की खबर भरत चक्रवर्ती के कानों में पहुंची तो उनका हृदय ग्लानि से भर उठा। “धिक्कार है मुझको, मैं अनुज भाईयों का राज्य लेने चला हूँ। उन्होंने तो राज वैभव का ही त्याग कर दिया। अभी मैं जाता हूँ उनसे क्षमायाचना करने के लिए। क्षमा मांगकर ग्लानि और अवसाद से मुक्त होने के लिए। इतनें में चक्रवर्ती की सभा 1. दृष्टि युद्ध 2. वचन युद्ध 3. बाहु युद्ध 4. दण्ड युद्ध 5. मुष्टि युद्ध यह पांच युद्ध कायम होने से दोनों तरफ की सेना समता से बैठ गई । इन्द्रादि देव इसमें साक्षी भूत रहे । प्रथम 4 युद्धों में बाहुबली की जीत हुई, भरत महाराजा हार गए। जब मुष्टि युद्ध की बारी आई, प्रथम भरतेश्वर 112 www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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