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काले न कओ सज्झाओ असज्झाइए सज्झायं काल में स्वाध्याय न किया हो, अस्वाध्याय की स्थिति में
स्वाध्याय किया हो।
स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय न किया हो।
सज्झाइए न सज्झायं
भणतां गुणतां विचारतां ज्ञान और ज्ञानवंत पुरुषों की अविनय अशातना की हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं
* दर्शन सम्यक्त्व का पाठ
अरिहंतो महदेवो जावज्जीवं
साहुणो गुरुणो
जिण पण्णत्तं तत्तं इअ सम्मत्तं मए गहियं
जीवन पर्यन्त अरिहंत मेरे देव ।
सुसाधु निर्ग्रन्थ गुरु है।
जिनेश्वर कथित तत्त्व सार रूप है, इस प्रकार का सम्यक्त्व मैंने ग्रहण किया है।
परमत्थ संथवो वा सुदिट्ठ परमत्थ सेवणावावि परमार्थ का परिचय अर्थात् जीवादि तत्वों की यथार्थ जानकारी
करना, परमार्थ के जानकार की सेवा करना ।
समकित से गिरे हुए तथा मिथ्या दृष्टियों की संगति छोडने रुप। ये इस सम्यक्त्व के (मेरी श्रद्धा बनी रहे) श्रद्धान है। इस सम्यक्त्व के पांच अतिचार रुप प्रधान दोष है जो जानने योग्य है किंतु आचरण करने योग्य नहीं है।
वे इस प्रकार है उनकी मैं आलोचना करता हूँ ।
श्री जिन वचन में शंका की हो, परदर्शन की आकांक्षा की हो। धर्म
के फल में संदेह किया हो। पर पाखण्डी की प्रशंसा की हो,
पर पाखण्डी का परिचय किया हो ।
* मेरे समयक्त्व रुप रत्न पर मिथ्या रुपी रज मैल लगा हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं
* चत्तारि मंगलं का पाठ
वावण कुदंसण वज्जणा
य सम्मत्त सद्दहणा
इस सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा
तं जहा ते आलोउं संका कंखा वितिगिच्छा पर पासंड पसंसा पर पासंड संथवो
चत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं सिद्धा मंगलं साहू मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो
चत्तारि शरणं पवज्जामि, अरिहंते शरणं पवज्जामि
सिद्धे शरणं पवज्जामि, साहू शरणं पवज्जामि
केवली पण्णत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि
चार मंगल है, अरिहंत मंगल है, सिद्ध मंगल है, साधु मंगल है, केवली प्ररुपित दया धर्म मंगल है। चार लोक में उत्तम है, अरिहंत लोक में उत्तम है। सिद्ध लोक में उत्तम है, साधु लोक में उत्तम है। केवली प्ररुपित धर्म लोक में उत्तम है।
चरणों को ग्रहण करता हूँ, अरिहंत भगवान की शरण ग्रहण करता हूँ।
सिद्ध भगवान की शरण ग्रहण करता हूँ, साधुओं की शरण ग्रहण करता हूँ।
केवली प्ररुपित दशा धर्म की शरण ग्रहण करता हूँ।
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