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________________ दुग्यो नि याम हावाकोडकरता चोरी, मांस भक्षण, मंदिरा, पान, विश्वासघात, परस्त्रीगमन, झुठा आरोप आदि निंदित कार्य में भी प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। निन्ध प्रवृत्ति से यश, बल एवं आरोग्यादि का नाश होता है। इन प्रवृत्तियों से कुविकल्प व दुहर्यान होने से भयंकर तामस संस्कार का कर्म बंध और दुर्गति का आमंत्रण मिलता है। * इन्द्रिय समूह को वश करने के तत्पर : इन्द्रियों को अयोग्य स्थान की ओर जाने से रोकना। उन पर अंकुश रखना। * षट् अन्तरंग शत्रुओं के त्याग में उद्यत : काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष का मत्सर ये छः आत्मा के अनेक शत्रु है। इन शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। इनकी आधीनता में धन, पूर्व संचित पुण्य की हानि हमी उद्रीना होती है तथा पाप का बंध होता है। * अभिनिवेश त्याग: न्यायसंगत न होने पर भी दूसरों को नीचा दिखाने के लिए जो कार्य किया जाता है वह अभिनिवेश हैं। हठाग्रहिता मिथ्या पकड, दराग्रह आदि अभिनिवेश की पर्याय है। जो सच्चा है वह मेरा है । यह सदाग्रह है, किंतु मेरा है वह सच्चा है यह पकड दुराग्रह है। इससे विवाद, विरोध, क्लेश आदि उत्पन्न होता है। सत्य से वंचित रहना पडता है। * परस्पर अवधित रुप में तीनों वर्गों की साधना जीवन में धर्म, अर्थ और काम तीन पुरुषार्थों को समान रुप से करना चाहिए हैं। जिससे अभ्युदय और मोक्ष सुख की सिद्धि हो वह धर्म है, जिससे लौकिक गृहस्थाश्रम के सर्व प्रयोजन सिद्धि होते हैं वह अर्थ है अभिमान से उत्पन्न समस्त इन्द्रिय सुखो से संबंधित रस युक्त प्रीति काम है। सद्गृहस्थ को इन तीनों वर्गों की साधना इस प्रकार से करनी चाहिए कि, वे एक दूसरे के लिए परस्पर बाधक न बनें। * उपद्रवपूर्ण स्थान का त्याग : जो स्थान स्व चक्र, पर चक्र आदि के कारण अशांतिग्रस्त हो, जहां दंगे - फसाद भडक रहे हो, जहाँ दुभिक्षि दुष्काल या महामारी का प्रकोप हो, जहाँ अपने विरोध में जन आंदोलन हो, गृहस्थ को उस स्थान, गाँव या नगर को छोड देना चाहिए। क्योंकि वहाँ सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन का अनुकूल वातावरण नहीं रहता। * निषिद्ध देश - काल एवं चर्या का त्याग : ___ जैसे धर्म विरुद्ध प्रवृत्ति का त्याग आवश्यक है वैसे ही व्यवहार शुद्धि एवं भविष्य में पाप से बचने के लिए देश, काल तथा समाज से विरुद्ध प्रवृत्ति का त्याग भी आवश्यक हैं जैसे एक सज्जन व्यक्ति का वेश्या या बदमाशों के मुहल्ले से बार बार . . . A 58 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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