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* पोष्य का पोषण करना :
सद्गृहस्थ का यह उत्तरदायित्व है कि वह अपने आश्रित रहे हुए पारिवारिक सदस्य माता- पिता, पत्नी, पुत्र, पुत्री, नौकर आदि का पालन पोषण करें। जो गृहस्थ इस प्राथमिक जिम्मेदारी को भलीभांति नहीं निभाता है वह सद्गृहस्थ नहीं कहा जा सकता और न ऐसा व्यक्ति धर्म का योग्य अधिकारी हो सकता है।
सद्गृहस्थ आचार संपन्न ज्ञानीजनों का पूजक होता है। अनाचार के त्यागी एवं सम्यक्
आचार के पालक को वृतस्य कहते हैं, ऐसे सदाचारी ज्ञानवृद्धों की पूजा करना, उनकी सेवा करना, उसको आसन प्रदान करना, उनके सम्मान में खडे हो जाना आदि ज्ञानियों एवं अनुभवियों को आदर देना चाहिए। ज्ञानियों की भक्ति करने से ज्ञान में वृद्धि होती है और हिता हित की पहचान होती है।
2. 8 दोषों का त्याग
* अवर्णवादी न होना :
अवर्णवाद का अर्थ है निंदा। सद्गृहस्थ को, किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए और न सुनना चाहिए। दूसरों की निंदा करने से मन घृणा, द्वेष, ईर्ष्या वैर - विरोध आदि बढते हैं। प्रेम भंग होता है। व्यक्ति नीच गोत्र का भी बंध
करता है।
बंध के कारण
जिनेन्द्र प्रभ की निन्दा
* अतिथि आदि का सत्कार :
साधु-साध्वी, साधर्मिक, दीन
दुखियों की यथायोग्य सेवा सत्कार करना। अतिथि उसे कहते हैं - जिसके आने की तिथि निश्चित न हो, जिनको धर्म करने के लिए कोई निश्चित तिथि विशेष न हो, जिनका जीवन हमेशा धर्ममय हो। ऐसे उत्कृष्ट अतिथि निर्ग्रन्थ साधु - साध्वियों को आहार- पानी, औषधि आदि उचित रुप से भक्ति करना गृहस्थ का धर्म है। साथ ही दीन दुखी एवं अनाथ पशुओं की अनुकंपा बुद्धि से दान देना, उनकी सेवा करना सद्गृहस्थ का आचार है।
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* वृत्तस्थ ज्ञानियों का पूजक :
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* निन्ध प्रवृत्ति का त्याग : जिस प्रकार वाणी से निंदा
नहीं करनी चाहिए उसी प्रकार शरीर और इन्द्रियों से निन्ध प्रवृत्ति का आचरण भी नहीं करना चाहिए। धर्म, देश, जाति एवं कुल से गर्हित, जुआ,
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