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________________ * पुण्य तत्व * नव तत्वों में जीव और अजीव के बाद तीसरा तत्त्व, पुण्य है। सांसारिक जीव जब तक मुक्त अवस्था को प्राप्त नहीं कर लेता तब तक कर्म उसके जीवन में आते जाते रहते हैं। संयोगी केवली अवस्था तक ( 13वें गुणस्थान) कर्मों का आवागमन जारी रहता था क्योंकि जब तक जीव के साथ शरीर है तब तक उसे शरीर से कोई न कोई क्रिया करनी पडती है। संसार के प्रत्येक जीव को चाहे द्रव्य मन और द्रव्य वचन न भी हो किंतु तन तो उसके साथ जन्म जन्मांतर तक लगा रहता है। तन से प्रवृत्ति करते समय या तो आत्मा शुभ भावों में संलग्न होती या अशुभ भावों से युक्त होती । अगर शुभ भावों से युक्त होती तो शुभ कर्मों के आगमन को आमंत्रित करती और अशुभ भावों से युक्त होती तो अशुभ कर्मों को आमंत्रित करती है। स्पष्ट है मानसिक, वाचिक या कायिक कोई भी प्रवृत्ति करते समय जीव यदि शुभ भावों में युक्त होता है तो पुण्य कर्म के बीज बोता है और अशुभ भावों से युक्त होता है तो पाप कर्म के बीज बोता है। - * पुण्य की व्याख्या पुणत्ति - शुभ करोति पुनोत्ति वा पवित्री करोत्यात्मानम् इति पुण्यम् - अर्थात् जो आत्मा को शुभ करता है अथवा उसे पवित्र बनाता है, जिसकी शुभ प्रकृति हो, जिसका परिणाम मधुर हो, जो सुख संपदा प्रदान करें, उसे पुण्य कहते हैं। तत्वार्थ सूत्र में कहा गया है स्थान दान के शुभ पुण्यस्थ अर्थात् शुभ योग पुण्य का आश्रव है। सारी शुभ प्रवृत्तियाँ और शुभ प्रकृतियाँ पुण्य अंतर्गत समाविष्ट हो जाती है, संसार में जो कुछ भी शुभ है, वह सब पुण्य और पुण्य के फल में अन्तनिर्हित है। अतः पुण्य आत्मा के लिए उपकारक है, यहाँ तक कि तीर्थंकरत्व की प्राप्ति का कारण भी तीर्थंकरत्व नामक पुण्य प्रकृति है । ******************** आहार अन्नदान Jain Education International - - : * पुण्य के नौ प्रकार पुण्य उपार्जन करने के लिए शास्त्रकार ने नव प्रकार बताए हैं। 1. अन्न पुण्य शुभ भाव से निस्वार्थ भावनापूर्वक भूखे को भोजनादि देकर उसकी भूख मिटाने से पुण्य बंध होता है, वह अन्न पुण्य है, उसमें विधि, द्रव्य, दाता और पात्र लेने वाले को वैशिष्ट्य से पुण्य बंध में विशिष्टता आती है। 2. पान पुण्य :- प्यासे को शुभभाव से पेयजल पिलाकर उसकी प्यास शांत करने से जो पुण्य प्रकृति • का बंध होता है वह पान पुण्य है। - 3. लयण पुण्य :- बेघरबार एवं निरक्षित को आश्रय के लिए मकान आदि स्थान देने से पुण्य प्रकृति का जो बंध होता है वह लयण पुण्य है। 38 For Personal & Private Use Only जल दान हैहैहैहैहैहै www.jainelibrary.org
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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