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________________ * ग्यारहवाँ भव * आयुष्यपूर्ण कर मेघरथ और दृढरथ मुनि सर्वार्थसिद्ध देवलोक में देवता हुए और यहाँ पर तेतीस सागरोपम की आयु सुख से बितायी। * बारहवाँ भव * बारहवें भव में मेघरथ का जीव देवलोक से च्यवन कर महारानी अचिरादेवी की कुक्षी में अवतरे * च्यवन कल्याणक * अनुत्तर विमान में मुख्य सर्वार्थसिद्ध नाम के विमान से च्यवनकर राजा मेघरथ का जीव रानी अचिरादेवी की कोख में आया। उस समय रात को अचिरा देवी ने चक्रवर्ती और तीर्थंकर के जन्म की सूचना देनेवाले चौदह महास्वप्न देखे। प्रातःकाल ही महादेवी ने पति से स्वप्नों का सारा वृत्तान्त वर्णन किया। राजा ने कहा :- "हे महादेवी ! तुम्हारे अलौकिक गुणों वाला एक पुत्र होगा।" राजा ने स्वप्न के फल को जाननेवाले निमित्तियों को बुलाकर स्वप्न का फल पूछा। उन्होंने उत्तर दिया :- "स्वामिन् ! इन स्वप्नों से आपके यहाँ एक ऐसा पुत्र पैदा होगा जो चक्रवर्ती भी होगा और तीर्थंकर भी।' इन्द्रादि देवों के आसन काँपे और उन्होंने प्रभु का च्यवन कल्याणक महोत्सव मनाया। * जन्म कल्याणक * गर्भकाल पूरा होने पर ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी की मध्य रात्री में भगवान का जन्म हुआ। उस समय चौदह राजलोक में अपूर्व शांती फैल गई। प्रभु के जन्म के समय दसों दिशाएं पुलकित हुई व वातावरण में अपूर्व उल्लास था । इन्द्रों ने उत्सव किया। राजा विश्वसेन ने अत्याधिक प्रमुदित मन से पुत्र का जन्मोत्सव मनाया। श्री शांतीनाथ भगवान का जन्म होने पर छप्पन दिक्कुमारियों का आना, चौसठ इन्द्र मिलकर प्रभु का जन्माभिषेक करना इत्यादि सभी श्री महावीर स्वामी या पार्श्वनाथ प्रभु की तरह समझना। * नामकरण * नामकरण के दिन राजा विश्वसेन ने कहा - हमारे राज्य में कुछ मास पूर्व भयंकर महामारी का प्रकोप था । ब सब लोग चिंतित थे । महारानी अचिरा देवी भी रोग से आक्रांत थी । बालक के गर्भ में आते ही रानी का रोग शांत हो गया, धीरे - धीरे सारे देश से महामारी भी समाप्त हो गयी, अतः बालक का नाम शांतिकुमार रखा जाए। सबने उसी नाम से नवजात शिशु को पुकारा। * विवाह और राज्य * शैशव काल समाप्त होते ही राजा विश्वसेन ने उनकी यशोमति आदि कई राजकन्याओं के संग शादी करवाई। सर्वार्थसिद्ध से च्यवनकर दृढरथ का जीव महाराजा शांती की पटरानी यशोमति के गर्भ में आया । उसी समय उसने स्वप्न में सूर्य के समान तेजस्वी 666 Jan Education international 181 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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