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________________ किसी का जरा सा दिल दुखे ऐसा विचार भी मैं नहीं कर सकता। ऐसा विचार करना, सामायिक से गिरना है, धर्म से पतित होना है। ऐसी हालत में मंत्रीजी ! आप ही कहो, दोनों पक्षियों की रक्षा करने के लिए मेरे पास अपना बलिदान देने के सिवा दूसरा कौनसा उपाय है? मुझे कर्तव्यपरायण मनुष्य समझकर, धर्म पालनेवाला मनुष्य समझकर, शरणागत प्रतिपालक मनुष्य समझकर, यह कबूतर मेरी शरण में आया है, मैं कैसे इसको त्याग सकता हूँ ? और इसी तरह बाज को भूख से तड़पते कैसे छोड़ सकता हूँ ? इसलिए मेरा शरीर देकर इन दोनों जीवों की रक्षा करना ही मेरा धर्म है । शरीर तो नाशवान है । आज नहीं तो कल यह जरुर नष्ट होगा । इस नाशवान शरीर को बचाने के लिए मैं अपने धर्मशरीर का नाश न होने दूंगा। ___ अंतरिक्ष से आवाज आयी, “धन्य राजा ! धन्य" सभी आश्चर्य से इधर उधर देखने लगे । उसी समय वहाँ एक दिव्य रुपधारी देवता आ खड़ा हुआ। उसने कहा :- “नृपाल ! तुम धन्य हो । तुम्हें पाकर आज पृथ्वी धन्य हो गयी । बडे से लेकर तुच्छ प्राणी तक की रक्षा करना ही तो सच्चा धर्म है। अपनी आहुति देकर भी जो दूसरे की रक्षा करता है वही सच्चा धर्मात्मा है। हे राजा ! मैं ईशान देवलोक का एक देवता हूँ । एक बार ईशानेन्द्र ने आपकी दृढ धर्मी होने की तारीफ की। मुझे उस पर विश्वास न हुआ और मैं आपकी परीक्षा लेने के लिए आया। अपना संशय मिटाने के लिए आपको तकलीफ दी इसके लिए मुझे क्षमा करो।" देव वंदन करके अपने देवलोक में चला गया । एक बार मेघरथ राजा ने अष्टम तप करके कार्योत्सर्ग धारण किया । रात के समय ईशानेन्द्र अपने अन्तापुर में बैठे हुए 'नमो भगवते तुभ्यं'' कहके नमस्कार किया। इन्द्रिाणियों के पूछने पर कि आपने अभी किसको नमस्कार किया है ? इन्द्र ने जवाब दिया :- “पुंडरीकिणी नगरी के राजा मेघरथ ने अष्टम तप कर अभी कार्योत्सर्ग धारण किया है। वह इतना दृढ मनवाला है कि, दुनिया का कोई भी प्राणी उसे अपने ध्यान से विचलित नहीं कर सकता।'' इन्द्रिाणियों को यह प्रशंसा असह्य हुई। वे बोली :- "हम जाकर देखते हैं कि, वह कैसा दृढ मनवाला है।'' इन्द्राणियों ने आकर अपनी देवमाया फैलाकर मेघरथ को ध्यान से चलित करने के लिए, रातभर अनेक कोशिशें की, अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग किये, परंतु राजा अपने ध्यान से न डिगे। सूर्य उदित होनेवाला है यह देख इन्द्राणियों ने अपनी माया समेट ली और ध्यानस्थ राजा को नमस्कार कर उससे क्षमा मांगी, फिर वे चली गयी। ध्यान समाप्त कर राजाने दीक्षा लेने का दढ संकल्प कर लिया। एक बार धनरथ प्रभ विहार करते हुए उधर आये । मेघरथ ने अपने पुत्र मेघसेन को राज्य देकर दीक्षा ले ली । उनके भाई दृढरथ ने, उनके सात सौ पुत्रों और अन्य चार हजार राजाओं ने भी उनके साथ दीक्षा ली । मेघरथ मुनि ने बीस स्थानक की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म बंध किया । अंत में, मेघरथ और दृढरथ मुनि ने, अखंड चारित्र पाल, अंबर तिलक पर्वत पर अनशन धारण किया। विसनियltinue TAll .... .0417 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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