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________________ चक्र को आकाश उतर कर मुंह में प्रवेश करते हुए देखा। रानी सहसा उठी, बडी रोमांचित हुई। उसने अपने पति महाराज शांति को जगाकर अपने स्वप्न के बारे में बताया । महाराज शांति ने कहा- “देवी! मेरे पूर्व भव का भाई दृढरथ तुम्हारे गर्भ में आया है।'' बालक का जन्म हुआ, नाम दिया गया चक्रायुध । यौवन वय में चक्रायुध का अनेक राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ। कालांतर में शांतीनाथ की आयुधशाला में चक्र रत्न पैदा हुआ। चक्र की सहायता से आठ सौ वर्षों में छः खंडों को जीतकर शांती चक्रवर्ती सम्राट बने । * वैराग्य अपने अद्वितीय बल वैभव से छः खण्डों पर राज्य करते हुए शांतीनाथ भगवान को एक दिन पूर्व जन्म में आचरित तप आदि की स्मृति होने पर मन में विरक्ति हुई इतने में लोकांतिक देवों ने आकर प्रार्थना की ** - प्रभो! तीर्थ प्रर्वतनाईए”। शांतीनाथ भगवान तो पहले से ही तैयार थे और उन्होंने वार्षिक दान देना आरंभ किया। * दीक्षा कल्याणक • Education - सहसाम्र वन में ज्येष्ठ कृष्णा, चतुर्दशी के दिन भरणी नक्षत्र में शांतीनाथ भगवान ने पंच मुष्टि लोच किया । तदनन्तर धीर गंभीर भाव से प्रतीज्ञा का उच्चारण करते हुए भगवान ने “ णमो सिद्धाणं" शब्द से सिद्धों को नमस्कार करके "करेमि सामइयं" इस प्रतिज्ञा सूत्र का पाठ बोलकर इन्द्र द्वारा दिया हुआ देव दुष्य कंधे पर धारण कर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। उसी समय भगवान को चौथा मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ । इन्द्रादि देवों ने भी दीक्षा कल्याणक का महोत्सव मनाया। * केवलज्ञान कल्याणक एवं तीर्थ स्थापना भगवान एक वर्ष तक छद्मस्थ साधना करते रहे । अभिग्रह युक्त तप एवं आसन युक्त ध्यान से विशेष कर्म निर्जरा करते हुए पुनः उसी सहसाम्र वन में पधारे। वहीं पर शुक्लध्यान में लीन होकर उन्होंने क्षपक श्रेणी पर आरुढ हुए, पोष शुक्ला नवमी के दिन नन्दी वृक्ष के नीचे घाति कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान - केवलदर्शन प्राप्त किया। केवली बनते ही देवों ने प्रभु का केवलज्ञान महोत्सव मनाया । समवसरण की रचना की । देव तथा मनुष्यों की अपार भीड़ में प्रभु ने प्रथम देशना दी। प्रवचन से प्रभावित होकर अनेक व्यक्तियों ने आगार व अणगार धर्म को स्वीकार किया। भगवान् के प्रथम पुत्र महाराज चक्रायुध ने अपने पुत्र कुलचंद्र को राज्यभार सौंप कर भगवान के पास दीक्षा ली और प्रथम गणधर बने । 19 * For Personal Pavale Dse Only - www.jaihelibrary.org
SR No.004051
Book TitleJain Dharm Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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