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तृतीया सूत्रात्मक ग्रंथ (जैनदर्शन का ) तत्त्वार्थाधिगम सूत्र है । इसके प्रणेता पू. वाचकप्रवर श्री उमास्वातिजी महाराजा है । यह जैनदर्शन का आकर ग्रंथ है । प्रमेयबहुल इस ग्रंथ में जैनदर्शन के सभी आध्यात्मिक एवं दार्शनिक पदार्थों का निरुपण किया गया है। दस अध्याय में विभक्त यह ग्रंथ के प्रथम अध्याय में मोक्षमार्ग का स्वरुप, सम्यग्दर्शन का स्वरुप और उसकी प्राप्ति का उपाय, जीवादि तत्त्वो का नामोल्लेख, प्रमाण एवं नय का स्वरुप इत्यादि अनेक विषयों का निरुपण किया है । द्वितीय अध्याय में औदयिकादि भाव, जीव का लक्षण, जीव के भेद, इन्द्रिय एवं उसके रुपादि विषय इत्यादि विषयों का निरुपण किया है। तृतीय अध्याय में सात नरक, जंबुद्वीप, क्षेत्र, आर्यभूमि एवं अनार्यभूमि इत्यादि का प्रतिपादन किया है । चतुर्थ अध्याय में देव की चार निकाय का वर्णन किया है। पंचमाध्याय में जीवादि षड्द्रव्यात्मक लोक का प्रतिपादन किया गया है । षष्ठाध्याय में आश्रव तत्त्व का, सप्तमाध्याय में व्रत एवं उनके अतिचार का, अष्टमाध्याय में बंध तत्त्व का एवं आठ कर्म का, नवमाध्याय में संवर एवं निर्जरा तत्त्व का और दसमाध्याय में मोक्ष तत्त्व का निरुपण किया है। इसके उपर स्वोपज्ञ भाष्य एवं पू. श्री सिद्धसेनगणिजी कृत बृहद्वृत्ति उपलब्ध है ।
चतुर्थ सूत्रात्मक ग्रंथ मीमांसादर्शन (जैमिनि सूत्र ) है । जिसके रजयिता श्री जैमिनि ऋषि है । मीमांसा दर्शन के १६ अध्याय है । इसमें से प्रथम १२ अध्याय “द्वादशलक्षणी" के नाम से प्रसिद्ध है और अंतिम ४ अध्याय " संकर्षण काण्ड" या "देवता काण्ड" के नाम से प्रख्यात है । इस संग्रह ग्रंथ में प्रसिद्ध द्वादशलक्षणी का संग्रह किया है । द्वादशलक्षणी का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - प्रथमाध्याय में धर्म पुराणों का प्रतिपादन किया गया है । द्वितीयाध्याय में शब्दान्तर, अभ्यास, संख्या, संज्ञा, गुण तथा प्रकरणान्तर६ कर्म भेद के प्रमाण वर्णित है । तृतीयाध्याय में श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान तथा समाख्यान, इन विनियोजक प्रमाणों का प्रतिपादन है । चतुर्थाध्याय में श्रुति, अर्थ, पाठ, स्थान, मुख्य और प्रवृत्ति इन बोधक प्रमाणों का निरुपण में षष्ठाध्याय
है । पंचमाध्याय में क्रम (कर्मों में आगे पीछे होने का निर्देश ),
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