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अ०१२/प्र०४
कसायपाहुड / ७८७ तथा उन्हीं के आधार से सबके अन्त में जयधवला टीका भी लिखी गई है तथा वर्तमान समय में उनका हिन्दी में रूपान्तर भी हो रहा है।
. २. जयधवला में उल्लिखित अंग-पूर्वधारियों की परम्परा से ज्ञात होता है कि दिगम्बरपरम्परा में तीर्थंकर भगवान् महावीर से लेकर जो परम्परा पाई जाती है, उसी परम्परा में किसी समय ये आचार्य हुए हैं। अपने श्रुतावतार में इन्द्रनन्दी ने भी इसे स्वीकार किया है।
३. इन ग्रन्थरत्नों की भाषा, रचनाशैली और शब्दविन्यास आदि का क्रम दिगम्बरपरम्परा के एतद्विषयक अन्य साहित्य के ही अनुरूप है, श्वेताम्बर-परम्परा के साहित्य के अनुरूप नहीं।
. ४. दि० आचार्यों की मालिका में गुणधर और यतिवृषभ दो आचार्य भी हुए हैं। तथा उन्होंने कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि की रचना की थी, आनुपूर्वी से इसकी अनुश्रुति दिगम्बर-परम्परा में रही आई, श्वेताम्बर-परम्परा इस विषय में बिल्कुल अनभिज्ञ रही। यह निष्कारण नहीं होना चाहिए। स्पष्ट है, श्वेताम्बर-परम्परा ने इन दोनों अनुपम कृतियों को श्वेताम्बर-परम्परा के रूप में कभी भी मान्यता नहीं दी।
५. शतक और सप्ततिका आदि में २-४ उल्लेखों द्वारा जो कषायप्राभृत का नामनिर्देश पाया जाता है, वह केवल विषय की पुष्टि के प्रयोजन से ही पाया जाता है। उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं है।
स्पष्ट है कि कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि दिगम्बर आचार्यों की अमर रचनाएँ हैं। (लेख समाप्त)
इस प्रकार माननीय पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य ने इस लेख में सप्रमाण सिद्ध किया है कि कसायपाहुड दिगम्बराचार्य की ही कृति है। इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि उसे श्वेताम्बरपरम्परा, यापनीयपरम्परा या श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये हेतु असत्य या हेत्वाभास हैं।
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