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________________ ७८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१२ / प्र०४ पर उनकी रचना करते भी थे, तो उसमें नामादि के ख्यापन की प्रवृत्ति का प्रायः अभाव ही रहता था। यही कारण है कि पूर्व आचार्यों की सभी कृतियाँ प्रायः प्रशस्तियों से रहित पाई जाती हैं। एक तो इस कारण से उक्त आचार्यों के नामों का उल्लेख अन्यत्र कम दृष्टिगोचर होता है। दूसरे, ये कर्मसिद्धान्त जैसे सूक्ष्म और गहन दुरूह अर्थवाले विषय का प्रतिपादन करनेवाले पौर्व ग्रन्थ हैं। इनका अवधारण करना मन्दबुद्धिजनों को सुगम न होने से अन्य साहित्य के समान इनका सर्वसुलभ प्रचार कभी भी नहीं रहा। गृहस्थों की बात तो छोड़िये, मुनिजनों में भी ऐसे मेधावी विरले ही मुनि होते आये, जो इनका सम्यक् प्रकार से अवधारण करने में समर्थ होते रहे। इसलिए भी इनके रचयिता आचार्यों का नामोल्लेख अन्यत्र कम दृष्टिगोचर होता है। यह तो गनीमत है कि दिगम्बरपरम्परा में इनका इतना इतिहास मिलता भी है। श्वेताम्बरपरम्परा तो आचार्य गुणधर और यतिवृषभ के नाम भी नहीं जानती। इतना ही क्यों, उस परम्परा में कर्मप्रकृतिचूर्णि, सप्ततिका, शतक तथा उनकी चूर्णि आदि कतिपय जो भी कर्मविषयक मौलिक साहित्य उपलब्ध होता है, उसका तो इतना भी इतिहास नहीं मिलता। प्रामाणिक ऐतिहासिक दृष्टि से, कल्पित अनेक उल्लेख न मिलने की अपेक्षा प्रामाणिक एक-दो उल्लेखों का मिलना उससे कहीं अधिक हितावह है। ३. श्रीजयधवला में आचार्य गुणधर के, पूर्वो के एकदेश के ज्ञाता होने पर भी, उन्हें वाचक कहने में विसंवाद की कोई बात नहीं है। नन्दिसूत्रपट्टावली में आर्य नागहस्ति को पूर्वधर न लिखकर मात्र विवक्षित पूर्व के एकदेशरूप कर्मप्रकृति में प्रधान कहा गया है। फिर भी उसमें उनके यशःशील वाचकवंश की अभिवृद्धि की कामना की गई है। उपसंहार कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि ये दोनों दिगम्बर आचार्यों की अमर कृतियाँ हैं, इस विषय में पूर्व में हम सप्रमाण ऊहापोहपूर्वक संक्षेप में जो कुछ भी लिख आये हैं, उन सबका यह उपसंहार है १. कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि के रचनाकाल से लेकर उनकी महती टीका जयधवला के रचनाकाल तक और उसके बाद भी दिगम्बरपरम्परा में उक्त ग्रन्थरत्नों का बराबर पठन-पाठन होता आ रहा है। यह इसी से स्पष्ट है कि उन पर दिगम्बर आचार्यों द्वारा अनेक उच्चारणाएँ और पद्धति प्रभृति टीकाएँ लिखी गई हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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