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________________ अ०१२/प्र०३ कसायपाहुड / ७४९ जी को निष्पक्षता का प्रमाणपत्र देकर षटखण्डागम के विशिष्ट विद्वान् , बहुश्रुतविद्वान् आदि विशेषणों के द्वारा उनकी बड़ी प्रशंसा की थी। एक ही व्यक्ति साम्प्रदायिक और निष्पक्ष, दोनों नहीं हो सकता। अतः उक्त ग्रन्थलेखक ने पं० हीरालाल जी शास्त्री को यदि जीवसमास और षट्खण्डागम के प्रकरण में निष्पक्ष माना है, तो कसायपाहुडचूर्णि, कम्मपयडिचूर्णि आदि के प्रकरण में भी निष्पक्ष मानना होगा। यद्यपि शास्त्री जी का जीवसमास और षट्खण्डागम-सम्बन्धी मत भ्रान्तिपूर्ण है, क्योंकि षट्खण्डागम की रचना ईसापूर्व प्रथमशती (पूर्वार्ध) में हुई थी, जब कि 'जीवसमास' को स्वयं डॉक्टर सागरमल जी ने छठी शती ई० में रचित बतलाया है (देखिये, अध्याय १०/प्र.५/शी.५), अतः 'जीवसमास' का षट्खण्डागम की जीवट्ठाण-प्ररूपणाओं का आधार होना असंभव है, तथापि शास्त्री जी का कसायपाहुडचूर्णि, कम्मपयडिचूर्णि आदि से सम्बन्धित मत प्रामाणिक है। माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने भी कसायपाहुडचूर्णि और कम्मपयडिचूर्णि के अत्यन्त साम्य को दर्शाते हुए माना है कि कर्मप्रकृति के चूर्णिकार ने कसायपाहुड के चूर्णिसूत्रों को देखा था। उनका कसायपाहुड (भाग १) की प्रस्तावना (पृ.२२-२४) में उल्लिखित यह वक्तव्य द्रष्टव्य है "कसायपाहुड के साथ जिस श्वेताम्बरीय ग्रन्थ कर्मप्रकृति की तुलना कर आये हैं, उसी कर्मप्रकृति पर एक चूर्णि भी है। किन्तु उसके रचयिता का पता नहीं लग सका है। जैसे कसायपाहुड के संक्रम-अनुयोगद्वार की कुछ गाथाएँ कर्मप्रकृति के संक्रमकरण से मिलती हुई हैं, उसी प्रकार उन्हीं गाथाओं पर की चूर्णि में भी परस्पर में समानता है। हम म लिख आये हैं कि कसायपाहुड के संक्रम-अनुयोगद्वार की १३ गाथाएँ कर्मप्रकति के संक्रमकरण में हैं। इन गाथाओं में से पहली ही गाथा पर यतिवृषभ ने चूर्णिसूत्र रचे हैं। कर्मप्रकृति में भी उस गाथा तथा उसके आगे की एक गाथा पर ही चूर्णि पाई जाती है, शेष ग्यारह गाथाओं पर चूर्णि ही नहीं है। उससे आगे फिर उन्हीं गाथाओं से चूर्णि प्रारम्भ होती है, जो कसायपाहुड में नहीं है। यह सादृश्य काकतालीयन्याय से अचानक ही हो गया है या इसमें भी कुछ ऐतिहासिक तथ्य है, यह अभी विचाराधीन है। अस्तु, यह समानता तो चूर्णि की रचना करने और न करने की है। दोनों चूर्णियों में कहीं-कहीं अक्षरशः समानता भी पाई जाती है। जैसे-कसायपाहुड के चारित्रमोहोपशामना नामक अधिकार में चूर्णिसूत्रकार ने उपशामना का वर्णन इस प्रकार किया है १०. देखिए , 'जीवसमास' (अनु.-साध्वी विद्युत्प्रभाश्री) / भूमिका / पृ.XI - XII । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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