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________________ ७४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१२ / प्र०३ यदि यह नियम माना जाय कि ग्रन्थकार अपने ग्रन्थ में जिस अन्य ग्रन्थ को उद्धृत करता है, वह उसी की परम्परा का होता है, तो इस नियम से भी कसायपाहुड दिगम्बरपरम्परा का ही सिद्ध होता है, क्योंकि दिगम्बराचार्य यतिवृषभ ने चूर्णिसूत्र में, वीरसेन स्वामी ने जयधवला में तथा इन्द्रनन्दी और विबुधश्रीधर ने अपने श्रुतावतारों में कसायपाहुड को उद्धृत किया है। किन्तु यह नियम उपपन्न नहीं होता, क्योंकि यहीं पर हम देखते हैं कि सित्तरीचूर्णि में उद्धृत होने से कसायपाहुड श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध होता है और यतिवृषभ आदि द्वारा अपने-अपने ग्रन्थ में उद्धत किये जाने से दिगम्बरपरम्परा का। यतः यह नियम उपपन्न नहीं होता, अत: सित्तरीचूर्णिकार ने कसायपाहुड का उल्लेख अपनी ही परम्परा के ग्रन्थ के रूप में किया है, यह मान्यता अप्रामाणिक है। इसलिए कसायपाहुड को श्वेताम्बर या यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु असत्य है। चूँकि श्वेताम्बर-परम्परा में कसायपाहुड का अस्तित्व ही नहीं था, अत: सिद्ध है कि सित्तरीचूर्णि में दिगम्बरपरम्परा के ही कसायपाहुड को अपने कथन की पुष्टि के लिए उद्धृत किया गया है, क्योंकि दोनों परम्पराओं में कर्मसिद्धान्त के विषय में बहुतर साम्य है। एक दूसरी संभावना भी है। कर्मसाहित्य के अध्येता पण्डित हीरालाल जी शास्त्री ने कसायपाहुडचूर्णिसूत्र, कम्मपयडी तथा सतक एवं सित्तरी की चूर्णियों का सूक्ष्म अध्ययन कर उनके अत्यन्त साम्य के कारण यह पाया है कि इन सभी चूर्णियों के कर्ता आचार्य यतिवृषभ हैं। अतः यतिवृषभ के द्वारा सित्तरीचूर्णि में कसायपाहुड को प्रमाणरूप में या तुलना के लिए उद्धृत किया जाना स्वाभाविक ही है। यद्यपि 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने इसका खण्डन करते हुए पं० हीरालालजी शास्त्री के निष्कर्ष को सम्प्रदायिक आग्रह का परिणाम बतलाया है, किन्तु शास्त्री जी ने षट्खण्डागम की प्रस्तावना में जब भ्रान्तिवश यह लिखा कि 'जीवसमास' (श्वेताम्बरग्रन्थ) षट्खण्डागम की जीवट्ठाण-प्ररूपणाओं का आधार रहा है, तब उक्त ग्रन्थ के लेखक ने इन्हीं शास्त्री ६. "तस्स पाहुडस्स दुवे णामधेज्जाणि। तं जहा पेज्जदोसपाहुडे त्ति वि कसायपाहुडे त्ति वि।" कसायपाहुडसुत्त / पेज्जदोस-विहत्ती / सूत्र २१ । (क.पा./भाग १ / गा. १३-१४ / पृ. १८१)। ७. कसायपाहुडसुत्त / प्रस्तावना / पृ.३८-५६। ८. जै.ध.या.स./ पृ.१०९-११०। ९. षट्खण्डागम/सम्पादिका : ब्र.पं. सुमतिबाई शहा/ श्री श्रुतभाण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण, १९६५ । इसकी भूमिका में शास्त्री जी ने उक्त विचार व्यक्त किया है। डॉ. सागरमल जी ने 'जीवसमास' (अनु.-साध्वी विद्युत्प्रभाश्री) की भूमिका (पृ.XXXI- Xli) में शास्त्री जी द्वारा लिखित सम्पूर्ण भूमिका उद्धृत की है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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