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________________ अ०११/प्र०५ षट्खण्डागम/६६५ यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ नहीं है। यदि होता, तो एक यापनीय-आचार्य अपने ही सम्प्रदाय के ग्रन्थ में प्रतिपादित सिद्धान्त को अप्रामाणिक कैसे सिद्ध करता? यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि शाकटायन ने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में श्वेताम्बर-आगम उत्तराध्ययनसूत्र (मथुरागम) से ही प्रमाण दिया है, षट्खण्डागम से नहीं। उन्होंने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में न तो षट्खण्डांगम-सत्प्ररूपणा के सूत्र क्रमांक ९३ में आये 'संजद' शब्द की चर्चा की है, न 'मणुसिणी' शब्द का उससे सम्बन्ध जोड़ा है। यद्यपि यह कहा है कि आगम में मनुष्यों और मानुषियों के चौदह गुणस्थान बतलाये गये हैं, तथापि आगम से उनका अभिप्राय षट्खण्डागम से है, ऐसा स्पष्ट नहीं किया। षट्खण्डागम के अतिरिक्त अन्य दिगम्बरग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि में गुणस्थानों की चर्चा है और श्वेताम्बरग्रन्थ जीवसमास, में है, जो कि छठी शताब्दी ई० का है। संभव है इनमें से किसी ग्रन्थ के आधार पर शाकटायन ने मानुषी में चौदह गुणस्थानों के अस्तित्व का प्रमाण दिया हो। इससे भी स्पष्ट है कि शाकटायन षट्खण्डागम को अपने सम्प्रदाय का ग्रन्थ नहीं मानते थे, मथुरागम आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों को ही अपने सम्प्रदाय का ग्रन्थ स्वीकार करते थे। पुरुष के लिए प्रयुक्त 'स्त्री' शब्द मुख्य शब्द नहीं, गौण या उपचरितयापनीयाचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन का कथन है स्तनजघनादिव्यङ्गये 'स्त्री' शब्दोऽर्थे न तं विहायैषः। दृष्टः क्वचिदन्यत्र त्वग्निर्माणवकवद् गौणः॥ ३६॥ स्त्रीनिर्वाण-प्रकरण। अन्वय-'स्त्री' शब्दः स्तनजघनादिव्यङ्गये अर्थे ( प्रसिद्धः)। एषः (शब्दः) तं (अर्थ) विहाय क्वचित् न दृष्टः। अन्यत्र तु अग्निर्माणवकवद् गौणः। अनुवाद-'स्त्री' शब्द स्तन-जघन आदि शरीरावयवों से युक्त जीव के अर्थ में प्रसिद्ध है। इस अर्थ को छोड़कर वह अन्य किसी अर्थ में प्रसिद्ध नहीं है। अन्य (स्त्रैणभावों से युक्त पुरुष ) अर्थ में प्रयुक्त 'स्त्री' शब्द गौण (उपचरित) शब्द होता है, मुख्य शब्द नहीं। अभिप्राय यह कि जैसे अग्निर्माणवकः (यह बालक तो आग है) इस वाक्य में बालक के लिए अग्नि शब्द का प्रयोग अग्निरूप मुख्य अर्थ में नहीं, अपितु अग्नि के समान अत्यन्त उग्र अर्थात् अत्यन्त क्रोधी-स्वभाव-वाला इस गौण अर्थ में किया गया है, वैसे ही स्त्री-जैसी प्रवृत्तियोंवाले किसी पुरुष को जब स्त्री कहा जाता है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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