________________
६५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र०४ यहाँ 'मणुसा' (मनुष्याः) शब्द मनुष्यगति के द्रव्यपुरुष का वाचक है, क्योंकि षट्खण्डागम और धवला में मनुष्यगति की द्रव्यस्त्री और भावस्त्री के लिए 'मणुसिणी' शब्द का प्रयोग किया गया है। तथा “अन्य गतियों के स्त्रीवेदोदयवाले जीवों में तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का अभाव है" यह देवगति की अपेक्षा कहा गया है, क्योंकि देवगति में कल्पवासी देवों (मनुष्यगति में तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध आरंभकर देवरूप में उत्पन्न होनेवाले जीवों) को तो तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध होता है, किन्तु कल्पवासी देवियों को नहीं होता, जो द्रव्य और भाव दोनों स्त्रीवेदों से युक्त होती हैं। कहा भी गया है-"कप्पित्थीसु ण तित्थं" (गो.क./ गा.११२)। इस प्रमाण से मनुष्यजातीय द्रव्यस्त्रियों में तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का अभाव सिद्ध किया गया है। भवनत्रिक-देव-देवियों और तिर्यंचों में किसी को भी तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध नहीं होता-"भवणतिये णस्थि तित्थयरं।" (गो.क./गा.१११)। नरकगति में स्त्रीवेद और पुरुषवेद होते नहीं हैं। और सम्यग्दृष्टि भावमनुष्यिनी (स्त्रीवेदोदययुक्त द्रव्यपुरुष) को उपशमश्रेणी के अपूर्वकरणगुणस्थान तक तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध होता है, किन्तु इस श्रेणी के जीवों को केवलज्ञान संभव न होने से उनके द्वारा बाँधी गयी तीर्थंकरप्रकृति के उदय का अवसर नहीं आता। इससे सिद्ध है कि "तित्थयरबंधस्स मणुसा चेव सामी" (धवला / ष.खं./ पु.८/ ३,१७७ / पृ.२६१) इस आर्ष-वाक्य में मनुष्यगति के तीनों भाव-वेदों के उदय से युक्त द्रव्यपुरुषों को ही तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का स्वामी बतलाया गया है और वाक्य में प्रयुक्त अवधारणार्थक ‘एव' शब्द से द्रव्यस्त्रियों में तीर्थंकर-प्रकृति के बन्ध का निषेध किया गया है। "अण्णस्थित्थिवेदोदइल्लाणं तित्थयरस्स बंधाभावादो" (धवला / ष.खं./ पु.८ । ३,१७७ / पृ.२६१) इस वाक्य से अन्य गतियों की द्रव्यस्त्रियों में भी तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का अभाव प्रदर्शित किया गया है।
षट्खण्डागम-विशेषज्ञ स्व० पं० पन्नालाल जी सोनी ने भी धवला के उक्त वाक्य का अनुवाद करते हुए लिखा है-"तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का स्वामी द्रव्यपुरुष ही है।" (दिगम्बर-जैन-सिद्धान्त-दर्पण / द्वितीय अंश/ पृ.१७१)।
नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी गोम्मटसार-कर्मकाण्ड की निम्नलिखित गाथा में मनुष्यगति के द्रव्यपुरुष को ही तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का स्वामी बतलाया है
पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि।
तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते॥ ९३॥ ___ यहाँ पुंल्लिङ्गीय नराः शब्द का प्रयोग कर एक ओर मनुष्यगति की द्रव्यस्त्री को तीर्थंकरप्रकृतिबन्ध का निषेध किया गया है, दूसरी ओर यह प्रतिपादित किया गया है कि मनुष्यगति को छोड़कर शेष गतियों के जीव तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का प्रारंभ नहीं करते।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org