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________________ ६४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ (निर्णय) होती है। सन्देह हो जाने से लक्षण अलक्षण नहीं हो जाता।' तदनुसार टीकाग्रन्थों से और अन्य ग्रन्थों से उक्त सन्देह दूर कर लिया जाता है । मूलग्रन्थ के भी आगेपीछे के प्रकरणों पर से सन्देह दूर कर लिया जाता है । ग्रन्थान्तरों में और टीकाग्रन्थों में स्पष्ट कहा गया है कि मनुसिणी के भावलिंग की अपेक्षा चौदह गुणस्थान होते हैं और द्रव्यलिंग की अपेक्षा से आदि के पाँच गुणस्थान होते हैं ।" १११ आदरणीय पं० वंशीधर जी व्याकरणाचार्य ने इस विषय में अपना मत निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया है - " मनुष्यणी शब्द का अर्थ पर्याप्तनामकर्म और स्त्रीवेद - नोकषाय के उदयविशिष्ट मनुष्यगतिनामकर्म के उदयवाला जीव ही आगमग्रन्थों में लिया गया है और वह द्रव्य से स्त्री की तरह द्रव्य से पुरुष भी हो सकता है। तात्पर्य यह है कि 'मनुष्यणी' शब्द का अर्थ स्त्रीवेद - नोकषाय के उदयसहित द्रव्यस्त्री की तरह स्त्रीवेद- नोकषाय के उदयसहित द्रव्यपुरुष भी हो सकता है और यही अर्थ समानरूप से सत्प्ररूपणा, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्ररूपणाओं में 'मनुष्यणी' शब्द का है, ऐसा समझाना चाहिए ।" " ११२ यहाँ पण्डित जी ने 'मनुष्यणी' शब्द का एक अर्थ स्त्रीवेदनोकषाय के उदय से युक्त द्रव्यपुरुष बतलाकर स्पष्ट किया है कि यह शब्द भावस्त्री का भी वाचक है। इन आर्ष प्रमाणों और विद्वानों के वक्तव्यों को देखते हुए माननीय पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य का यह कथन समीचीन प्रतीत नहीं होता कि " आगम में 'मनुष्यिनी' पद स्त्रीवेद के उदयवाले मनुष्यगति के जीव के लिए ही आता है। जो लोक में नारी, महिला या स्त्री आदि शब्दों द्वारा व्यवहृत होता है, आगम के अनुसार मनुष्यनी शब्द का अर्थ उससे भिन्न है । आगम में 'मनुष्यिनी' शब्द भाववेद की मुख्यता से ही प्रयुक्त हुआ है, अत एव वह केवल अपने ही अर्थ में चरितार्थ है । ११३ उपर्युक्त आर्षप्रमाणों और विद्वद्वचनों से सिद्ध है कि आगम में 'मनुष्यिनी' या 'मानुषी' शब्द का प्रयोग महिला (द्रव्यस्त्री) के लिए भी किया गया है और उस पुरुष के लिए भी, जो स्त्रीवेदनोकषाय के उदय से युक्त है। अ० ११ / प्र०४ ——— १११. क - दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण / द्वितीय अंश / पृ. १५० - १५१ । ख– “व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्न हि सन्देहादलक्षणम् ।" पातंजल महाभाष्य / प्रत्या. / सूत्र ६ । ११२. पं. वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ / खं. ५ / पृ. २४ । ११३. सर्वार्थसिद्धि / दो शब्द / पृ.१० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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