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________________ अ०८ / प्र० २ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ११ दिये हैं, जो इसमें हैं ।" अनेक शिलालेखों से भी इस बात की पुष्टि होती है कि इस पट्टावली में जिन आचार्यों के नाम दिये हुए हैं, वे भट्टारक थे। क्रम सं० ८४ पर उल्लिखित पद्मनन्दी का पट्टाभिषेक उनके गुरु प्रभाचन्द्र ने किया । इन्हीं भट्टारक पद्मनन्दी के तीन शिष्यों से तीन भट्टारक परम्पराएँ और उनसे अनेक शाखाएँ - प्रशाखाएँ प्रचलित हुईं। (जै. ध. मौ. इ. / भा. ३ / पृ. १३६ - १३९ ) । " इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर निर्विवादरूप से सिद्ध हो जाता है कि नन्दीसंघ की यह पट्टावली वस्तुतः भट्टारकपरम्परा की ही पट्टावली है और इस पट्टावली के तीसरे आचार्य माघनन्दी ही उस प्रथम स्वरूपवाली भट्टारकपरम्परा के प्रवर्तक थे, जिस पर ऊपर विशदरूपेण प्रकाश डाला गया है। ( वही / पृ.१४०) । " इस पट्टावली के अतिरिक्त एक और भी बहुत बड़ा प्रबल प्रमाण इस तथ्य की पुष्टि करनेवाला है कि उपरिवर्णित प्रथम स्वरूप की भट्टारकपरम्परा के जनक आदि-भट्टारक वस्तुतः भद्रबाहु द्वितीय के प्रशिष्य एवं आचार्य गुप्तिगुप्त के शिष्य माघनन्दी थे। वह प्रबल प्रमाण यह है कि इस पट्टावली में भट्टारकपरम्परा का पाँचवाँ पट्टाधीश आचार्य कुन्दकुन्द को बताया गया है, जो निर्विवादरूपेण दिगम्बरपरम्परा के पुनरुद्धारक, महान् क्रान्तिकारी, पुनः - संस्थापक माने गये हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने दादागुरु द्वारा संस्थापित भट्टारकपरम्परा की नव्य- नूतन मान्यताओं के विरुद्ध विद्रोह किया। वे माघनन्दी के शिष्य जिनचन्द्र के पास भट्टारकपरम्परा में ही दीक्षित हुए। मेधावी मुनि कुन्दकुन्द ने अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् दिगम्बरपरम्परा द्वारा सम्मत आगमों के निदिध्यासन-चिंतन-मनन से जब जिनेन्द्र-प्रभु द्वारा प्ररूपित जैनधर्म के वास्तविक स्वरूप और तीर्थंकरों द्वारा आचरित श्रमणधर्म को पहचाना, तो उन्हें अपने प्रगुरु माघनन्दी द्वारा संस्थापित धर्म और श्रमणाचार - विषयक मान्यताएँ धर्म और श्रमणाचार के मूल स्वरूप के अनुरूप प्रतीत नहीं हुईं। उन्होंने संभवतः अपने प्रगुरु, गुरु और भट्टारकसंघ द्वारा सम्मत उन कतिपय अभिनव मान्यताओं के समूलोन्मूलन और पुरातन मान्यताओं की पुन: संस्थापना का संकल्प किया। इस प्रकार की अवस्था में गुरु-शिष्य के बीच, भट्टारकसंघ और क्रान्तिकारी मुनिपुंगव कुन्दकुन्द के बीच क्रमशः विचारभेद, मनोमालिन्य, संघर्ष और अलगाव (पृथक्त्व) का होना स्वाभाविक ही था । प्रमाणाभाव में यह नहीं कहा जा सकता कि वे स्वयं ही अपने गुरु से पृथक् हुए अथवा संघ द्वारा पृथक् किये गये। कुछ भी हो, वे पृथक् हुए और जैसा कि उत्तरकालवर्ती सभी ५. प्रो. जोहरापुरकर : भट्टारकसम्प्रदाय / जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर / पृष्ठ ९३ । ६. वही / पृष्ठ ९१ । ७. प्रो. जोहरापुरकर : भट्टारकसम्प्रदाय / पृ. ९५ / पृष्ठ ९५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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