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________________ ५६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११ / प्र०३ का आचार्य सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया उपर्युक्त हेतु, हेतु नहीं, हेत्वाभास है। तथा उक्त ग्रन्थलेखक दिगम्बरपट्टावलियों में धरसेन के नाम का अभाव बतलाते समय यह भूल गये कि उनका नाम श्वेताम्बरीय और यापनीय-पट्टावलियों में भी नहीं है। उन्होंने अपने ग्रन्थ में स्वयं स्वीकार किया है कि "कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों से हमें धरसेन के सम्बन्ध में कोई भी सूचना प्राप्त नहीं होती।" (जै.ध.या.स./ पृ.९०)। और यापनीयसम्प्रदाय की कोई स्वतन्त्र पट्टावली उपलब्ध नहीं है। वे श्वेताम्बर-आगमों को ही मानते थे, अतः श्वेताम्बर-स्थविरावलियों की आचार्यपरम्परा ही उनकी आचार्यपरम्परा थी। तथा इसी आचार्यपरम्परा को ग्रन्थलेखकमहोदय ने स्वकल्पित उत्तरभारतीय-अविभक्त-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा बतलाया है। उसमें भी धरसेन का नाम उपलब्ध नहीं है। अतः ग्रन्थलेखक के ही तर्क के अनुसार सिद्ध होता है कि धरसेन न तो श्वेताम्बरपरम्परा के आचार्य थे, न उत्तरभारतीय-अविभक्तसचेलाचेल-निर्ग्रन्थ परम्परा के, न ही यापनीयपरम्परा के। अन्यथानुपपत्ति प्रमाण से वे दिगम्बरपरम्परा के ही आचार्य सिद्ध होते हैं। दिगम्बरपट्टावलियों में धरसेन का नाम उपलब्ध भी है। तथा दिगम्बरनन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली, इन्द्रनन्दिकृत 'श्रुतावतार', विबुधश्रीधरकृत 'श्रुतावतार' एवं धवलाटीका में धरसेन के नाम का उल्लेख भी है। उपर्युक्त ग्रन्थलेखक डॉ० सागरमल जी ने दिगम्बरनन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली की प्रामाणिकता में पहले सन्देह व्यक्त किया, किन्तु आगे चलकर उसमें धरसेन के नामोल्लेख को स्वीकार कर उनके वीर नि० सं० ५८४ में दीक्षित और स्वकल्पित उत्तरभारतीय-अविभक्तसचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के आचार्य होने की संभावना व्यक्त की है। (जै.ध.या.स./पृ.९२) । तथा उसके बाद इसी पट्टावली को यापनीयसंघ की पट्टावली घोषित कर उसे धरसेन के यापनीय होनेका प्रमाण मान लिया है। उनके निम्नलिखित शब्द द्रष्टव्य हैं-"पुनः जिस नन्दीसंघ की पट्टावली को आधार बनाकर यह चर्चा की जा रही है, वह नन्दीसंघ भी यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध रहा है। कणप (कडब) के शक संवत् ७३५, ईस्वी सन् ८१२ के एक अभिलेख में श्रीयापनीय-नन्दिसंघ-पुन्नागवृक्ष-मूलगण ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। यापनीय और नन्दीसंघ की इस एकरूपता और नन्दीसंघ की पट्टावली में धरसेन के उल्लेख से यही सिद्ध होता है कि धरसेन यापनीयसंघ से सम्बद्ध रहे हैं।" (जै.ध.या.स./पृ.९३)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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