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________________ ५१२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०८ अक्षर भी नहीं है। यह साहित्यिक प्रमाण साक्षी है कि प्रोफेसर सा० का यह कथन भी कपोलकल्पित है। २.५. कुन्दकुन्द भी भद्रबाहु-द्वितीय के शिष्य नहीं और जब यह असत्य सिद्ध हो जाता है कि भद्रबाहु-द्वितीय शिवभूति के शिष्य थे, तब प्रो० हीरालाल जी की बतलाई हुई सारी गुरु-शिष्य-परम्परा बनावटी साबित हो जाती है। अतः यह उद्भावना भी मनगढन्त सिद्ध हो जाती है कि कुन्दकुन्द भद्रबाहुद्वितीय के शिष्य थे। कुन्दकुन्द ने अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु को अपना गुरु कहा है। श्रुतकेवली भद्रबाहु ईसापूर्व चौथी शती में हुए थे और कुन्दकुन्द ईसापूर्व प्रथम शती में। दोनों के अस्तित्वकाल में तीन सौ वर्ष का अन्तर है। अतः श्रुतकेवली भद्रबाहु कुन्दकुन्द के साक्षात् गुरु नहीं हो सकते, जिसका तात्पर्य यह है कि कुन्दकुन्द ने उन्हें परम्परया अपना गुरु कहा है। उनके अतिरिक्त अन्य किसी भद्रबाहु का उन्होंने नाम नहीं लिया। अतः भद्रबाहु-द्वितीय को, जो श्रुतकेवली नहीं थे, कुन्दकुन्द का गुरु घोषित करना मनमानी चेष्टा है। अपनी मनमानी चेष्टा को युक्तियुक्त दर्शाने के लिए प्रोफेसर सा० ने द्वितीय भद्रबाहु को भी शिलालेखों में 'श्रुतकेवली' नाम से प्रसिद्ध बतलाने का छल किया है। उन्होंने कहा है कि श्रवणबेल्गोल के शिलालेख क्र.४० (६४) एवं १०८ (२५८) में भद्रबाहु-द्वितीय को 'श्रुतकेवली' शब्द से अभिहित किया गया है। किन्तु उक्त लेखों में तो चन्द्रगुप्त के गुरु और पाँच श्रुतकेवलियों में जो चरम थे, उन्हीं भद्रबाहु को श्रुतकेवली कहा गया है। देखिए (श्री) भद्रस्सर्वतो यो हि भद्रबाहुरिति श्रुतः। श्रुतकेवलिनाथेषु चरमः परमो मुनिः ॥ ४॥ चन्द्रप्रकाशोज्ज्वलसान्द्रकीर्तिः श्रीचन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्यः। यस्य प्रभावाद्वनदेवताभिराराधितः स्वस्य गणो मुनीनाम्॥ ५॥ (जै.शि.सं./ मा.च./ भा.१ / ले.क्र.४० (६४)/११६३ ई.)। यो भद्रबाहुः श्रुतकेवलीनां मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि। अपश्चिमोऽभूद्विदुषां विनेता सर्वश्रुतार्थप्रतिपादनेन॥ ८॥ तदीयशिष्योऽजनि चन्द्रगुप्तः समग्रशीलानतदेववृद्धः। विवेश यत्तीव्रतपः-प्रभाव प्रभूत कीर्तिब्र्भुवनान्तराणि॥ ९ ॥ (जै.शि.सं./मा.च./भा.१/ ले.क्र.१०८ (२५८)/१४३३ ई.)। भद्रबाहु-द्वितीय न तो चन्द्रगुप्त के गुरु थे, न ही पाँच श्रुतकेवलियों में चरम थे। अतः उपर्युक्त शिलालेखों में भद्रबाहु-द्वितीय का उल्लेख बतलाना जिज्ञासुओं की आँखों में धूल झौंकना है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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