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________________ ४५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०६ हो जाता है। इसलिए जयसेन के उपर्युक्त कथन के आधार पर यह सिद्ध नहीं होता कि कुन्दकुन्द आठवीं शती ई० के उत्तरार्ध में हुए थे। ४. शिवमार - द्वितीय के समय ( ७९७ ई०) में उत्कीर्ण मण्णे - ताम्रपत्रलेख में कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख है, १ १८३ जिससे सिद्ध है कि कुन्दकुन्दान्वय के आदिपुरुष 'कुन्दकुन्द' शिवमार - द्वितीय से बहुत प्राचीन हैं। ५. प्रो० ढाकी ने शिवमार - द्वितीय का स्थितिकाल ८वीं शती ई० का अन्तिम चरण बतलाया है।१८४ किन्तु इस शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए अपराजित सूरि ने अपनी विजयोदया टीका में कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थों से गाथाएँ उद्धृत की हैं। तथा आठवीं सदी के तृतीयचरण में धवलाटीका लिखनेवाले वीरसेन स्वामी ने भी अपनी टीका में समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि से गाथाएँ उद्धृत कर अपने वक्तव्य को पुष्ट किया है । ये उदाहरण इस बात के ज्वलन्त प्रमाण हैं कि कुन्दकुन्द शिवमार - द्वितीय के समय से बहुत पहले उत्पन्न हुए थे । इन तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि प्रो० ढाकी का कुन्दकुन्द को आठवीं शताब्दी ई० के उत्तरार्ध में वर्तमान सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया उपर्युक्त हेतु कितना छलपूर्ण है। एक बनावटी शिवकुमार को खड़ा करके उन्होंने कुन्दकुन्द को आठवीं शताब्दी ई० का सिद्ध करने की कुटिल चेष्टा की है, जिसे उपर्युक्त प्रमाण विफल बना देते हैं। ८वीं शती ई. के कुमारनन्दि - सिद्धान्तदेव कुन्दकुन्द के गुरु आचार्य जयसेन ने पञ्चास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति का आरम्भ करते हुए यह भी लिखा है कि आचार्य कुन्दकुन्द कुमारनन्दि - सिद्धान्तदेव के शिष्य थे - " अथ श्रीकुमारनन्दि- सिद्धान्तदेवशिष्यैः --- श्रीमत्कुण्डकुन्दाचार्यदेवैः --- विरचिते पञ्चास्तिकायप्राभृतशास्त्रे - - - तात्पर्यार्थ - व्याख्यानं कथ्यते ।" यतः प्रो० ढाकी कुन्दकुन्द को आठवीं शती ई० में वर्तमान सिद्ध करने का उद्देश्य लेकर चले थे, अतः उन्होंने आठवीं शती ई० के अन्तिम चरण में एक बनावटी कुमारनन्दि - सिद्धान्तदेव को भी खड़ा कर दिया। वे उसका परिचय देते हुए लिखते हैं—“कुन्दकुन्दान्वय के इन कुमारनन्दी का नाम गंगवाड़ी के राष्ट्रकूट शासक रणावलोक १८३. “आसीत् तोरणाचार्य्यः कोण्डकुन्दान्वयोद्भवः ।" जै. शि.सं./ मा. च. / भा.२ /ले. क्र.१२२ । १८४. "Śivamāra II ( last quarter of the 8th cent.A.D.)" Aspects of Jainology, vol. III, p.192. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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