SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१०/प्र०६ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४५७ है कि " मैंने सिद्धान्तप्ररूपण के अनुराग से प्रेरित होकर जिनशासन की प्रभावना के लिए द्वादशांगश्रुत का साररूप यह 'पंचास्तिकायसंग्रह' ग्रन्थ प्ररूपित किया है। " १८१ यदि उन्होंने इसका प्ररूपण किसी शिवकुमार महाराज के लिए किया होता, तो वे इस गाथा में या ग्रन्थ की किसी प्रारंभिक गाथा में इसका उल्लेख अवश्य करते, जैसा जोइन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश के प्रारंभ में लिखा है कि प्रभाकर भट्ट के परमात्मस्वरूप की जिज्ञासा करने पर उन्होंने उक्त ग्रन्थ की रचना की है । १८२ किन्तु कुन्दकुन्द ने ऐसा उल्लेख न तो पञ्चास्तिकाय में किया है, न प्रवचनसार में । २. तथा आचार्य जयसेन ने शिवकुमार महाराज को एक राजा के रूप में नहीं, अपितु मुनि के रूप में वर्णित किया है। इसलिए कुन्दकुन्द ने किसी राजा के लिए उक्त ग्रन्थों की रचना की थी, यह मानना प्रामाणिक नहीं है। अधिक से अधिक यह माना जा सकता है कि कोई अराजवंशीय शिवकुमार कुन्दकुन्द के प्रधान शिष्य हुए हों और उनके लिए उक्त ग्रन्थों की रचना किये जाने की कोई अनुश्रुति जयसेनाचार्य के कानों तक पहुँची हो, उसी के आधार पर उन्होंने उक्त उल्लेख किया है। इसकी चर्चा द्वितीय प्रकरण में की जा चुकी है। ३. आठवीं शताब्दी ई० में दक्षिणभारत में कोई शिवकुमार नाम का राजा था ही नहीं, प्रो० ढाकी ने यह बात स्वयं स्वीकार की है। तथा जयसेन ने 'शिवमार' नाम का प्रयोग किया था शिवकुमार का नहीं, इसे सत्य सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इसके विपरीत प्रवचनसार की टीका में भी शिवकुमार नाम का प्रयोग होने से इस बात की पुष्टि होती है कि पंचास्तिकाय की टीका में भी 'शिवकुमार' नाम ही जयसेन द्वारा प्रयुक्त किया गया है। अतः आचार्य जयसेन ने शिवकुमार महाराज के लिए ही कुन्दकुन्द के द्वारा पंचास्तिकाय के लिखे जाने की बात कही है, शिवमार महाराज के लिए नहीं और आठवीं शती ई० में कर्नाटक में कोई शिवकुमार नाम का राजा था नहीं, अतः जयसेन द्वारा कथित शिवकुमार कोई राजा नहीं थे, यह स्पष्ट १८१. क— मग्गप्पभावणट्टं पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया । भणियं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं सुत्तं ॥ १७३ ॥ पञ्चास्तिकाय । ख- पं० जुगलकिशोर मुख्तार : स्वामी समन्तभद्र / पृ.१६७ - १६८ । १८२. भाविं पणविवि पंच-गुरु सिरि-जोइंदु - जिणाउ । भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ ॥ १ / ८ ॥ चउ - गइ - दुक्खहँ तत्ताहँ जो परमप्पर कोइ । चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि ॥ १/१० ॥ पुणु पुणु पणविवि पंचगुरु भावें चित्ति धरेवि । भट्टपहायर णिसुणि तुहुँ अप्पा तिविहु कहेवि ॥ १/११॥ परमात्मप्रकाश । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy