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तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय
[सैंतीस] तृतीय खण्ड की विषयवस्तु इस खण्ड में तेरहवें अध्याय से लेकर पच्चीसवें अध्याय तक कुल तेरह अध्याय हैं।
त्रयोदश अध्याय-प्रस्तुत अध्याय में इस भ्रान्ति का निवारण किया गया है कि भगवती-आराधना यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को सर्वप्रथम दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूराम जी प्रेमी ने यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ घोषित किया था। फिर तो श्वेताम्बरमुनि श्री कल्याणविजय जी, दिगम्बर विद्वान् प्रो० हीरालाल जी जैन, दिगम्बर विदुषी श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया, श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सागरमल जी जैन आदि ने भी इसे यापनीयसम्पद्राय का ग्रन्थ मान लिया। इसके समर्थन में इन सब विद्वानों ने उन्हीं हेतुओं का अनुसरण किया है, जो पं० नाथूराम जी प्रेमी ने प्रस्तुत किये हैं।
प्रेमी जी ने जो प्रमुख तर्क दिया है, वह यह है कि भगवती-आराधना में मुनि के लिए सवस्त्र अपवादलिंग का विधान है। किन्तु यह उनकी महाभ्रान्ति है। भगवतीआराधना में मुनि के लिए सवस्त्र अपवादलिंग का विधान नहीं है, अपितु मुनि के नाग्न्यलिंग को उत्सर्गलिंग और श्रावक के सवस्त्रलिंग को अपवादलिंग शब्द से अभिहित किया गया है। इसकी पुष्टि भगवती-आराधना के कर्ता शिवार्य तथा टीकाकार अपराजित सूरि के अनेक वचनों से की गयी है। इन दोनों आचार्यों ने मुनि के लिए आचेलक्य को अनिवार्य बतलाया है, अपवादलिंग का कोई विकल्प नहीं रखा, जिससे सिद्ध है कि भगवती-आराधना दिगम्बरपम्परा का ग्रन्थ है, यापनीयपरम्परा का नहीं। __ प्रेमी जी ने दूसरा तर्क देते हुए कहा कि 'भगवती-आराधना की कई गाथाएँ दिगम्बरजैनमत के विरुद्ध हैं और अनेक गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों से ग्रहण की गयी हैं। यह यापनीयग्रन्थ में ही संभव है।' यह तर्क भी भ्रान्ति से परिपूर्ण है। जिन गाथाओं को दिगम्बरजैनमत के विरुद्ध बतलाया गया है, वे दिगम्बरमत के सर्वथा अनुकूल हैं तथा जो गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों से गृहीत बतलायी गयी हैं, वे दिगम्बर-श्वेताम्बरभेद से पूर्व की मूल-अचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा से आयी हैं। अतः भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं है। इन तथ्यों की सिद्धि अनेक युक्ति-प्रमाणों से प्रस्तुत अध्याय में की गयी है। भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रेमी जी द्वारा प्रस्तुत सभी तर्कों का निरसन यहाँ किया गया है। डॉ० सागरमल जी ने भी दो नये हेतु जोड़े हैं, उनकी अप्रामाणिकता भी उद्घाटित की गयी है।
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