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________________ [छत्तीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ इस वेदवैषम्य को यापनीय-आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन (९वीं शताब्दी ई०) और बीसवीं शती ई० के दिगम्बरजैन विद्वान् प्रो० (डॉ०) हीरालाल जी जैन ने अमान्य किया है। इन दोनों विद्वानों की वेदवैषम्यविरोधी युक्तियों का सप्रमाण-सयुक्तिक निरसन भी प्रस्तुत अध्याय में किया गया है। __इस अध्याय में षट्खण्डागम में उपलब्ध उन सिद्धान्तों का भी वर्णन किया गया है, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं और इस बात के अखण्ड्य प्रमाण हैं कि षट्खण्डागम यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपम्परा का ग्रन्थ है। यहाँ यह भी सिद्ध किया गया है कि षट्खण्डागम की रचना ईसापूर्व प्रथम शती के पूर्वार्ध में हुई थी और यापनीयसम्प्रदाय का जन्म ईसोत्तर पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ था। इस कारण भी षट्खण्डागम का यापनीयग्रन्थ होना असंभव है। डॉ० सागरमल जी ने षट्खण्डागम को यापनीयग्रन्थ. सिद्ध करने के लिए और भी जो तर्क उपस्थित किये हैं, उन सबका निरसन इस अध्याय में किया गया है। द्वादश अध्याय-डॉ० सागरमल जी ने 'कसायपाहुड' को भी यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ बतलाया है और इसके समर्थन में यह तर्क रखा है कि उसमें स्त्री, पुरुष और नपुंसक के अपगतवेदी होकर चतुर्दश गुणस्थान तक पहुँचने की बात कही गयी है, जो उसके स्त्रीमुक्ति-समर्थक होने का प्रमाण है। चूँकि वह अर्धगामधी प्राकृत में न होकर शौरसैनी प्राकृत में है, इसलिए श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ नहीं है, अपितु यापनीयपरम्परा का है। ___ उक्त मत का निरसन करने के लिए इस अध्याय में यह प्रमाण प्रस्तुत किया गया है कि कसायपाहुड में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद, इन तीन भाववेदों (नोकषायों) का पृथक्-पृथक् अस्तित्व एवं गुणस्थानसिद्धान्त स्वीकार किया गया है। ये दोनों बातें यापनीयों को अमान्य हैं। अपगतवेदत्व भी वेदत्रय के अस्तित्व की मान्यता और गुणस्थान- सिद्धान्त पर आश्रित होने से यापनीयमत के विरुद्ध है, अतः कसायपाहुड यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। श्वेताम्बरमुनि श्री हेमचन्द्रविजय जी ने कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों को श्वेताम्बरग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनके द्वारा विन्यस्त हेतुओं का सप्रमाण निरसन सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने अपने एक लेख में किया है। यह लेख भी प्रस्तुत अध्याय में ज्यों का उद्धृत किया गया है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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