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________________ अ०७/प्र०५ यापनीयसंघ का इतिहास / ५८९ २. जिसमें अचेलता और सचेलता को समानरूप से मोक्ष का मार्ग माना गया हो अथवा जिसमें प्रतिपादित नियमों और मान्यताओं के अनुसार सवस्त्रमुक्ति का निषेध न होता हो। ३. जिसमें स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और केवलिभुक्ति का प्रतिपादन हो अथवा प्रतिपादित नियमों और मान्यताओं के द्वारा इनका निषेध न होता हो। ४. जिसमें गुणस्थान-व्यवस्था को मान्यता न दी गयी हो अर्थात् जिसमें गुणस्थानक्रम से रत्नत्रय का चरमविकास हुए बिना भी मुक्ति स्वीकार की गई हो। सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, सम्यग्दृष्टि जीव की स्त्रियों में उत्पत्ति तथा स्त्री को तीर्थंकरपद की प्राप्ति मानना गुणस्थान-व्यवस्था को मान्यता न देने का प्रमाण है। ५. जिसमें वेदत्रय एवं वेदवैषम्य को अमान्य किया गया हो। ६. जिसमें 'मनुष्यिनी' शब्द का प्रयोग द्रव्यस्त्री और भावस्त्री, दोनों अर्थों में न करके केवल द्रव्यस्त्री के अर्थ में किया गया हो। ७. जिसमें वस्त्रपात्रादि-द्रव्यपरिग्रह को परिग्रह न माना गया हो। ८. जिसमें अन्यदृष्टिप्रशंसा (अन्यमतप्रशंसा) और अन्यदृष्टिसंस्तव (अन्यमतसमर्थन) का निषेध न हो। ९. जिसमें तीर्थंकरप्रकृति के बन्धक सोलह कारणों के स्थान में बीस कारण माने गये हों। १०. जिसमें 'कल्प' नामक स्वर्गों की संख्या १६ और १२ दोनों न मानकर केवल १२ ही मानी गयी हो। ११. जिसमें 'अनुदिश' नामक नौ स्वर्ग स्वीकार न किये गये हों। १२. जिसमें श्वेताम्बर-आगमों को मान्य किया गया हो और यापनीयमत के समर्थन में उनसे उद्धरण दिये गये हों। (किन्तु जिस ग्रन्थ में श्वेताम्बर-आगमों को मूल आगम न मानते हुए भी उनके किसी उद्धरण से एकान्त-अचेलमुक्तिवाद का समर्थन या तद्विरोधी मत का खण्डन किया गया हो अथवा अन्य किसी प्रयोजन से उनका कोई वचन उद्धृत करने पर भी एकान्त-अचेलमुक्तिवाद का विरोध न होता हो, तो उसे यापनीयग्रन्थ नहीं माना जा सकता, दिगम्बरग्रन्थ ही मानना होगा)। १३. जिसमें स्त्री को तद्भव-मुक्तियोग्य मानते हुए निश्चयनय से (उपचार से नहीं) छेदोपस्थापनीय-चारित्र अर्थात् महाव्रतों के योग्य माना गया हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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