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५८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०७/प्र०४ इन तथ्यों को देखते हुए यदि यह माना जाय कि श्वेताम्बर-आगमसाहित्य आरम्भ से ही अर्धमागधी में निबद्ध था, तो वह पाँचवीं या दूसरी शताब्दी ई० के बाद रचा हुआ सिद्ध होगा। इसके पूर्व किसी भी रूप में, किसी भी भाषा में उसका अस्तित्व प्रमाणित न हो सकेगा। किन्तु हम देखते हैं कि ई० पूर्व चतुर्थ शताब्दी में हुई पाटलिपुत्रवाचना के समय से श्वेताम्बर-आगमसाहित्य अतिपरम्परा से चला आ रहा था और ईसा की चतुर्थ शती के आरंभ में जो दूसरी वाचना मथुरा में हुई थी, उसमें पुनः संकलित आगमसाहित्य शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था, यह 'भगवती-आराधना' की विजयोदयाटीका में दिये गये उद्धरणों से सिद्ध है। अतः यही सिद्ध होता है कि श्वेताम्बरआगमसाहित्य की मूलभाषा शौरसेनी थी, जिसे श्री देवर्द्धिगणी के नेतृत्व में हुई वलभीवाचना में अर्धमागधी में रूपान्तरित कर दिया गया।
यापनीयसंघ का लोप क्यों हुआ? इस विषय में माननीय पं० नाथूराम जी प्रेमी लिखते हैं- "इस संघ का लोप कब हुआ और किन-किन कारणों से हुआ, इन प्रश्नों का उत्तर देना तो बहुत परिश्रमसाध्य है, परन्तु अभी तक की खोज से यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी तक यह सम्प्रदाय जीवित था। कागबाड़े के श० सं० १३१६ (वि० स० १४५१) के शिलालेख में, जो जैनमन्दिर के भौंहिरे में है, यापनीयसंघ के धर्मकीर्ति और नागचन्द्र के समाधिलेखों का उल्लेख है। इनके गुरु नेमिचन्द्र को तुलुब-राज्य-स्थापनाचार्य की उपाधि दी हुई है, जो इस बात की द्योतक है कि वे एक बड़े राजमान्य व्यक्ति थे और इसलिए संभव है कि उनके बाद भी सौ पचास वर्ष तक इस सम्प्रदाय का अस्तित्व रहा हो।" (जै.सा. इ./प्र.सं./प्र.४२)।
मेरी दृष्टि से इस सम्प्रदाय के लोप के बीज इसकी सैद्धान्तिक असंगतता और साधुओं की गृहस्थवत् लौकिक प्रवृत्तियों में अन्तर्निहित थे।
यापनीयमत अत्यन्त अयुक्तिसंगत मत था। जैसा कि डॉ. सागरमल जी का मानना है, वह दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं के बीच योजक कड़ी के रूप में विकसित हुआ था,१६५ अर्थात् उसने आधे दिगम्बरत्व और आधे श्वेताम्बरत्व को लेकर एक संयुक्त मोक्षमार्ग बनाने का प्रयत्न किया था। यह दो भिन्नजातीय पुरुषों के आधेआधे शरीर को लेकर एकजातीय, एक पुरुष का शरीर बनाने की चेष्टा थी, जो अस्वाभाविक होने के कारण सफल नहीं हुई। मोक्ष की दृष्टि से न तो वह अचेलत्व का ही औचित्य सिद्ध कर सका, न सचेलत्व का ही। जब वस्त्रधारण मोक्ष में बाधक नहीं है, तब १६५. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय । लेखकीय / पृ.V।
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