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________________ अ०७/प्र०४ यापनीयसंघ का इतिहास / ५८३ साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' में और स्पष्ट करते हुए कहा है "जैन आगम की भाषा को अर्धमागधी कहा गया है, क्योंकि भगवान् महावीर के उपदेश की भाषा भी अर्धमागधी थी; पर उस प्राचीन अर्धमागधी का क्या स्वरूप था, इस सम्बन्ध में कोई निश्चित जानकारी आज उपलब्ध नहीं है। श्वेताम्बर-आगमग्रंथों में आज जो अर्धमागधी का स्वरूप उपलब्ध है, उसका गठन देवर्द्धिगणी की अध्यक्षता में सम्पन्न वलभी नगर के मुनिसम्मेलन में हुआ है। यह सम्मेलन वीर-निर्वाण-संवत् ९८० में हुआ था। इस मुनिसम्मेलन ने आगमग्रन्थों को सुसम्पादित किया। अतः भाषा और विषय इन दोनों ही क्षेत्रों में कुछ बातें पुरानी बनी रह गयीं और कुछ नवीन बातें भी जोड़ी गयीं। यही कारण है कि पद्य-भाग की भाषा गद्य-भाग की भाषा की अपेक्षा अधिक प्राचीन तथा आर्ष है। आयारंगसुत्त, सूयगडंगसुत्त एवं उत्तराज्झयणसुत्त की भाषा में पर्याप्त प्राचीन तत्त्व उपलब्ध हैं।" (पृ.३१)। __ वे आगे लिखते हैं-"सर्वमान्य सिद्धान्त है कि अर्धमागधी का रूपगठन मागधी और शौरसेनी से हुआ। हार्नले ने समस्त प्राकृत बोलियों को दो वर्गों में बाँटा है। एक वर्ग को उसने शौरसेनी-प्राकृत-बोली और दूसरे वर्ग को मागधी-प्राकृत-बोली कहा है। इन बोलियों के क्षेत्रों के बीचोंबीच उसने एक प्रकार की एक रेखा खींची, जो उत्तर में खालसी से लेकर वैराट, इलाहाबाद और फिर वहाँ से दक्षिण को रामगढ़ होते हुए जौगढ़ तक गयी है। ग्रियर्सन उक्त मत से सहमत होते हुए लिखते हैं कि उक्त रेखा के पास आते-जाते शनैः-शनैः ये दोनों प्राकृतें आपस में मिल गयीं और इसका परिणाम यह हुआ कि इनके मेल से एक तीसरी बोली उत्पन्न हुई, जिसका नाम अर्धमागधी पड़ा।" (वही पृ./३४)। ज्योतिषाचार्य जी आगे बतलाते हैं-"मार्कण्डेय ने अर्धमागधी भाषा के स्वरूप का विवेचन करते हुए लिखा है "शौरसेन्या अदूरत्वादियमेवार्धमागधी" (प्राकृतसर्वस्व/ पृ.१०३)। अर्थात् शौरसेनी भाषा के निकटवर्ती होने के कारण मागधी ही अर्धमागधी है। --- अभयदेव ने उवासगदसाओ की टीका में मागधी के पूर्ण लक्षणों को न पाकर लिखा है-"अर्धमागधी भाषा यस्यां रसोरलशौ मागध्यामित्यादिकं मागधभाषालक्षणं परिपूर्ण नास्ति।" अर्थात् अर्धमागधी वह भाषा है, जिसमें मागधी के पूर्ण लक्षण रकार और सकार के स्थान पर लकार और शकार नहीं पाये जाते। स्पष्ट है कि अभयदेव भी अर्धमागधी का रूप मागधी-मिश्रित शौरसेनी मानते हैं।" (वही / पृ.३५)। ज्योतिषाचार्य जी ने आगे लिखा है-"अर्धमागधी ध्वनितत्त्व, रूपतत्त्व, शब्दसम्पत्ति एवं अर्थतत्त्व की दृष्टि से प्राचीन शौरसैनी और प्राचीन मागधी का मिश्रित रूप है। अर्धमागधी नाम भी इस तथ्य का सूचक है कि इस भाषा में मागधी के आधे ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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