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४८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १
अ०७/प्र०१ अचेलकता-सचेलकता दोनों के पक्षधर-डॉ० सागरमल जी का कथन है कि उत्तरभारत की सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा से अचेलता के पक्षधर यापनीयसंघ और सचेलता के पक्षधर श्वेताम्बरसंघ का उद्भव हुआ था। (जै.ध.या.स./ पृ.२४)। यह कथन भ्रमोत्पादक है। यापनीयसंघ अचेलता और सचेलता दोनों का पक्षधर था, बल्कि अचेलता से अधिक सचेलता का पक्षधर था। स्त्रीमुक्ति की जैसी वकालत यापनीयग्रन्थ स्त्रीनिर्वाणप्रकरण और यापनीयतन्त्र में की गई है, वैसी श्वेताम्बरग्रन्थों में भी नहीं मिलती। श्री हरिभद्रसूरि ने ललितविस्तरा में स्त्रीमुक्ति के समर्थन में यापनीयतन्त्र के ही तर्क उद्धृत किये हैं। सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और परतीर्थिकमुक्ति का भी यापनीयसम्प्रदाय में उतना ही समर्थन किया गया है, जितना श्वेताम्बरसम्प्रदाय में। किन्तु जब सवस्त्रमुक्ति संभव है, तब अचेलता की क्या आवश्यकता है? इसका समाधान किसी भी यापनीयग्रन्थ में नहीं मिलता। तात्पर्य यह कि यापनीयसम्प्रदाय में युक्तिवाद के द्वारा सचेलता का तो औचित्य सिद्ध किया गया है, किन्तु अचेलता का नहीं। इससे स्पष्ट है कि यांपनीयमत सिद्धान्ततः सचेलता का ही पक्षधर था, अचेलता तो उसमें केवल लौकिक प्रयोजनवश स्वीकार की गई थी। इसका स्पष्टीकरण आगे द्रष्टव्य है।
डॉ० सागरमल जी लिखते हैं-"यापनीयों की मान्यता है कि अचेलता ही श्रेष्ठ मार्ग है, किन्तु आपवादिक स्थितियों में मुनि वस्त्र रख सकता है। (जै.ध.या.सं./पृ.४३१)। उसकी (यापनीयमत की) दृष्टि में अचेलकत्व (नग्नत्व) उत्सर्गमार्ग है और सचेलकत्व अपवादमार्ग।" (जै.ध.या.स./पृ.४३२)। इसके समर्थन में लेखक ने 'भगवती-आराधना' को यापनीयग्रन्थ मानते हुए उसकी "उस्सग्गियलिंगकदस्स" गाथा (७६) उद्धृत की है। किन्तु 'भगवती-आराधना' यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है, यह आगे 'भगवतीआराधना' नाम के अध्याय में सिद्ध किया जायेगा। इससे स्पष्ट है कि उपर्युक्त मान्यता किसी यापनीयग्रन्थ से समर्थित नहीं है। वस्तुतः यापनीयमत में उत्सर्ग-अपवाद का भेद ही नहीं मिलता, अपितु अचेलता और सचेलता दोनों को वैकल्पिक (ऐच्छिक) रूप में मान्यता दी गई है। (देखिये, अध्याय १४ / प्र. २ / शी. १.५, १.६., १.९ एवं १.१०)। अतः यह सिद्ध नहीं होता कि यापनीयसंघ अचेलता का पक्षधर था। वस्तुतः वह दोनों को समान महत्त्व देता था। अतः वह सचेलाचेलमार्गी था।
बोटिक शिवभूति यापनीयमत का प्रवर्तक नहीं द्वितीय अध्याय में मुनि कल्याणविजय जी, पं० दलसुखभाई मालवणिया और डॉ० सागरमल जैन के कथन उद्धृत किए गये हैं, जिनमें उन्होंने कहा है कि बोटिक शिवभूति ने वीरनिर्वाण सं० ६०९ (सन् ८२ ई०) में यापनीयमत का प्रवर्तन किया
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