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४८६ / जैनपरम्परा और याघनीयसंघ / खण्ड १
अ० ७ / प्र० १
सभी श्वेताम्बर आगमों एवं उनमें प्रतिपादित सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि सिद्धान्तों को मानते थे।
आचार्य श्री हस्तीमल जी भी लिखते हैं- "दिगम्बराचार्य रत्ननन्दी ने 'भद्रबाहुचरित' नामक अपनी रचना में उल्लिखित 'धृतं दिग्वाससां रूपमाचारः सितवाससाम्' इस श्लोकार्द्ध से यह स्वीकार किया है कि यापनीयसंघ के साधु-साध्वियों और आचार्यों आदि का आचार-विचार श्वेताम्बर - परम्परा के साधु-साध्वियों के अनुरूप था। इससे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि यापनीयपरम्परा की मान्यताएँ अधिकांश में श्वेताम्बरपरम्परा की मान्यताओं से मिलती-जुलती थीं।" (जै. ध. मौ.इ. / भा. ३ / पृ. २१२ ) ।
श्वेताम्बराचार्य श्री गुणरत्नसूरि (१४वीं शती ई०) ने यापनीयों के आचार का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे नग्न रहते हैं, पाणिपात्र में भोजन करते हैं, मयूरपिच्छी रखते हैं, वन्दना किये जाने पर 'धर्मलाभ हो' यह आशीर्वाद देते हैं तथा स्त्रियों की मुक्ति और केवलिभुक्ति मानते हैं। उनका दूसरा नाम गोप्य भी है।
यापनीयतन्त्र नामक ग्रन्थ में स्त्रीमुक्ति के समर्थन में जो युक्तियाँ दी गयी हैं, उन्हें श्री हरिभद्रसूरि (८ वीं शती ई०) ने ललितविस्तरा ( गाथा ३ / पृ. ४०२ ) में उद्धृत किया है। इससे यापनीयों की स्त्रीमुक्ति - मान्यता की पुष्टि होती है ।
श्रुतसागरसूरि (१५वीं शती ई०) लिखते हैं- " यापनीय खच्चरों के समान हैं । वे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों मतों को मानते हैं । वे रत्नत्रय की पूजा करते हैं और कल्पसूत्र का वाचन भी करते हैं । वे कहते हैं कि स्त्रियों का तद्भवमोक्ष होता है, केवली भगवान् कवलाहार करते हैं, तथा परशासन माननेवाले सग्रन्थ की मुक्ति होती है । '
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पं० नाथूराम जी प्रेमी ने इन उल्लेखों के आधार पर लिखा है - " ललितविस्तरा के कर्त्ता हरिभद्रसूरि, षड्दर्शनसमुच्चय के टीकाकार गुणरत्नसूरि और षट्प्राभृत के व्याख्याता
ख - स्त्रीनिर्वाणप्रकरण एवं केवलिभुक्तिप्रकरण के रचयिता शाकटायन का वास्तविक नाम पाल्कीर्ति था। (देखिये, आगे पादटिप्पणी १५९ ) ।
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२. “ दिगम्बराः पुनर्नाग्न्यलिङ्गाः पाणिपात्राश्च । ते चतुर्धा काष्ठासङ्घ -मूलसङ्घ-माथुरसङ्घगोप्यसङ्घभेदात् । गोप्या मायूरपिच्छिका। गोप्यस्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति, स्त्रीणां मुक्तिं केवलिनां भुक्तिं च मन्यन्ते । गोप्या यापनीया इत्यप्युच्यन्ते । " त. र. दी. / षड्दर्शनसमुच्चय / चतुर्थ अधिकार / पृष्ठ १६१ ।
३. “यापनीयास्तु वेसरा गर्दभा इवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति कल्पं च वाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं, केवलिजिनानां कवलाहारं, परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति ।" श्रुतसागरटीका / दंसणपाहुड / गाथा ११ ।
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