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________________ सप्तम अध्याय यापनीयसंघ का इतिहास प्रथम प्रकरण यापनीयसंघ का स्वरूप .. इस सम्प्रदाय का परिचय देते हुए पं० नाथूराम जी प्रेमी लिखते हैं-"जैनधर्म के दो सम्प्रदाय हैं : दिगम्बर और श्वेताम्बर। इन दोनों के अनुयायी लाखों हैं और साहित्य भी विपुल है, इसलिए इनके मतों और मतभेदों से साधारणतः सभी परिचित हैं, परन्तु इस बात का बहुत ही कम लोगों को पता है कि इन दो के अतिरिक्त एक तीसरा सम्प्रदाय भी था, जिसे यापनीय, आपुलीय या गोप्य संघ कहते थे और जिसका इस समय एक भी अनुयायी नहीं है। --- किसी समय यह सम्प्रदाय कर्नाटक और उसके आस-पास बहुत प्रभावशाली रहा है। कदम्ब, राष्ट्रकूट और दूसरे वंशों के राजाओं ने इस संघ को और इसके साधुओं को अनेक भूमिदान किये थे। हरिभद्र ने अपनी ललितविस्तरा में यापनीयतंत्र का सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है।" (जै.सा.इ./ द्वि.सं. / पृ. ५६)। . सिद्धान्त और आचार १६वीं शती ई० के भट्टारक रत्ननन्दी (रत्नकीर्ति) ने भद्रबाहुचरित में यापनीयों के सिद्धान्त और आचरण के विषय में लिखा है कि वे वेश (लिंग) तो दिगम्बरों का धारण करते थे, लेकिन आचार श्वेताम्बरों का पालन करते थे-"धृतं दिग्वाससां रूपमाचारः सितवाससाम्।" (श्लोक ४/१५३)। इससे स्पष्ट होता है कि यापनीय साधुओं का केवल वेश दिगम्बरसाधुओं जैसा होता था, जैसे वे नग्न रहते थे, मयूरपिच्छी रखते थे और पाणितल में भोजन लेकर करते थे, लेकिन शेष सम्पूर्ण आचरण श्वेताम्बरसाधुओं के समान था। अर्थात् संभवतः उनके ही समान अनेक बार आहारजल लेते थे, बैठकर भोजन करते थे, शीतादिनिवारणार्थ कम्बल या चादर ओढ़ते थे, अर्श-भगन्दर आदि रोग हो जाने पर वस्त्रादि का उपयोग करते थे' तथा १. क-अर्शो-भगन्दरादिषु गृहीतचीरो यतिन मुच्येत। अपसर्गे वा चीरे ग्दादिः संन्यस्यते चात्ते ॥ १७॥ शाकटायन : स्त्रीनिर्वाणप्रकरण। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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