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________________ ४७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०६/प्र०२ के नाम के अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं देते। तमिलनाडु में अभिलेखयुक्त जो गुफायें हैं, वे सम्भवतः निर्ग्रन्थ के समाधिमरण ग्रहण करने के स्थल रहे होंगे। संगम युग के तमिलसाहित्य से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जैनश्रमणों ने भी तमिल भाषा के विकास और समृद्धि में अपना योगदान दिया था। तिरूकुरल के जैनाचार्यकृत होने की भी एक मान्यता है। ईसा की चौथी शताब्दी में तमिलदेश का यह निर्ग्रन्थसंघ कर्णाटक के रास्ते उत्तर की ओर बढ़ा, उधर उत्तर का निर्ग्रन्थसंघ सचेल (श्वेताम्बर) और अचेलक (यापनीय) इन दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण में गया।" (वही/ पृ. २९-३०)। इन वक्तव्यों में डॉक्टर सा० ने निम्नलिखित मान्यताएँ प्रतिपादित की हैं १. ईसापूर्व चौथी शती में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के नेतृत्व में जो निर्ग्रन्थश्रमणसंघ दक्षिण चला गया था, उसी का प्रतिनिधि आज का दिगम्बरसंघ है। अर्थात् दिगम्बरसंघ की स्थापना न तो बोटिक शिवभूति ने की थी, न आचार्य कुन्दकुन्द ने। वह भगवान् महावीर के उपदेशों का यथावत् अनुगामी मौलिक संघ है। २. दक्षिण-प्रवासी अचेल-निर्ग्रन्थसंघ भद्रबाहु (चौथी शती ई० पू०) की परम्परा से विकसित हुआ था और उत्तरवासी सचेल श्रमणसंघ का विकास स्थूलभद्र (चौथी शती ई० पू०) की परम्परा से हुआ था। ___३. पहले भगवान् महावीर के अनुयायी सभी मुनि नग्न और पाणिपात्रभोजी होते थे। संघ-विभाजन के पश्चात् एकमात्र भद्रबाहुनीत दक्षिणप्रवासी निर्ग्रन्थश्रमणसंघ ही नग्न और पाणिपात्रभोजी बना रहा। स्थूलभद्रनीत उत्तरभारतवासी श्रमणसंघ शीतल जलवायु की पीड़ा से बचने के लिए वस्त्रधारण करने लगा और भिक्षुओं की बढ़ती संख्या के कारण एक घर से पर्याप्त भिक्षा न मिल पाने से अनेक घरों से भिक्षा प्राप्त करने के लिए पात्र रखने लगा। इस प्रकार दिगम्बर-परम्परा मौलिक है और श्वेताम्बरपरम्परा विकसित। ४. भद्रबाहुनीत अचेल निर्ग्रन्थसंघ दक्षिण चला गया था और उत्तरभारत-स्थित स्थूलभद्रनीत श्रमणसंघ सचेल हो गया था, अतः सचेलाचेलसंघ का अस्तित्व भारत के किसी भी कोने में नहीं था। ५. वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद स्थूलभद्रानुयायी श्वेताम्बरसंघ से यापनीयसंघ का उद्भव हुआ। अतः श्वेताम्बर और यापनीय दोनों सम्प्रदायों की उत्पत्ति एक ही परम्परा से नहीं हुई। स्थूलभद्रानुयायी श्वेताम्बरसम्प्रदाय का जन्म उस मूल निर्ग्रन्थसंघ से हुआ था, जिस का प्रतिनिधि श्रुतकेवली भद्रबाहु का अनुयायी निर्ग्रन्थसंघ था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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