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________________ ४०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०५ / प्र० २ डॉ० हीरालाल जैन लिखते हैं- "जहाँ तक मूर्तिनिर्माण, आकृति व भावाभिव्यंजन के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है, उस पर से लोहानीपुर की मस्तकहीन नग्न मूर्ति व हड़प्पा प्राप्त मस्तकहीन नग्न मूर्ति में बड़ा साम्य पाया जाता है और पूर्वोत्तर परम्परा के आधार से हड़प्पा की मूर्ति वैदिक व बौद्ध मूर्तिप्रणाली से सर्वथा विसदृश व जैनप्रणाली के पूर्णतया अनुकूल सिद्ध होती है । "२८ डॉ० यू० पी० शाह का कथन है कि हड़प्पा में उपलब्ध मस्तकविहीन प्रतिमा यद्यपि लोहानीपुर- जिनप्रतिमा से आश्चर्यजनक साम्य रखती है, तथापि उसमें दोनों कन्धों के सामने दो गोलाकार बड़े छिद्र हैं, जो अभी तक उपलब्ध किसी भी जिनप्रतिमा में नहीं हैं। अतः संभव है कि वह किसी प्राचीन यक्ष की प्रतिमा हो । २९ किन्तु कन्धों के सामने गोलाकार छिद्रों का होना प्राचीन यक्षप्रतिमा का लक्षण है, इसका कोई प्रमाण नहीं है। डॉ० शाह ने उक्त प्रतिमा का लोहानीपुर की. जिनप्रतिमा से आश्चर्यजनक साम्य तो स्वीकार किया है, किन्तु ऐसी किसी प्राचीन यक्षप्रतिमा का उदाहरण नहीं दिया, जिसके साथ उसका वैसा ही साम्य हो । अतः स्पष्ट है कि उन्होंने बिना किसी प्रमाण के ही उसके यक्षप्रतिमा होने की संभावना व्यक्त की है। यह ध्यान देने योग्य है कि उक्त प्रतिमा के कण्ठप्रदेश में भी गोलाकार बृहद् छिद्र है। इससे ज्ञात होता है कि यह हड़प्पायुग में प्रतिमानिर्माण की एक शैली थी । अर्थात् कण्ठभाग और कन्धों में छिद्र बनाकर उनमें अलग से मस्तक और हाथ जोड़े जाते थे। उक्त प्रतिमा के कन्धे टूटे नहीं है, अपितु अखण्ड हैं, इससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि हाथ उससे टूटकर अलग नहीं हुए हैं, अपितु उसमें बने हुए छिद्रों में या तो फँसाये नहीं गये हैं, या उनसे निकलकर अलग हो गये हैं । अतः प्रतिमा में उक्त छिद्रों का होना उसके जिनप्रतिमा होने में बाधक नहीं है। इसके अतिरिक्त प्रतिमा में दो ही भुजाओं के लिए स्थान होना, अधिक के लिए न होना तथा शरीर का सर्वथा नग्न होना, कहीं भी वस्त्र, आभूषण या शस्त्रादि का कोई चिह्न न होना भी इस बात का सूचक है कि वह सर्वपरिग्रह - मुक्त वीतराग योगी की प्रतिमा है, किसी संसारी मनुष्य या विषयसुखासक्त देवयोनि के जीव की नहीं । २८. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान / पृ. ३४२ । २९. “The mutilated red-Stone Statuette from Harappa assigned to the chalcolithic age is surprisingly analogous in style to the Mauryan torso of Jin figure from Lohanipur, Bihar, but has in addition two large circular depression on shoulder-fronts unlike any Jaina sculpture discovered hitherto. Very probably it represents some ancient yaksa." Dr. U.P. Shah: Studies in Jaina Art, p.4, also see p.41. Jain Education International For Personal & Private Use Only wwww.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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