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________________ ग्रन्थसार जैसा कि पूर्व . ज्ञापित किया गया है, मान्य श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि "दिगम्बरजैनमत तीर्थंकर प्रणीत नहीं है, अपितु छद्मस्थप्रणीत है। वह बहुत प्राचीन भी नहीं है, श्वेताम्बरमत की अपेक्षा बहुत बाद का है। दिगम्बरपरम्परा में बहुमान्य आचार्य कुन्दकुन्द भी बहुत पुराने नहीं है, वे विक्रम की छठी शताब्दी में हुए थे और दिगम्बरजैन - सम्प्रदाय जिन धर्मग्रन्थों को अपना मानता है, उनमें से षट्खण्डागम आदि १८ प्रमुख ग्रन्थ उसके नहीं है, अपितु तत्त्वार्थसूत्र एवं सन्मतिसूत्र श्वेताम्बराचार्यों द्वारा रचित हैं, शेष १६ यापनीय - आचार्यों की कृतियाँ हैं । कसायपाहुड को श्वेताम्बरमुनि श्री हेमचन्द्र विजय जी ने श्वेताम्बरग्रन्थ बतलाया है, जब कि डॉ० सागरमल जी जैन ने यापनीयग्रन्थ । इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र के विषय में डॉ० सागरमल जी का मत है कि वह न श्वेताम्बरग्रन्थ है, न यापनीयग्रन्थ, बल्कि इन दोनों की मातृपरम्परा में अर्थात् उत्तरभारतीय - सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा में निर्मित हुआ है। " मान्य श्वेताम्बर मुनियों और विद्वानों के ये सभी मत प्रमाणसिद्ध नहीं है, अत एव काल्पनिक हैं और इन्हें सत्य सिद्ध करने के लिए उन्होंने जो तर्क या हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे भी सभी काल्पनिक हैं । इस प्रकार उपर्युक्त साध्यभूत काल्पनिक मतों का साधक उनका तर्कप्रासाद काल्पनिक सामग्री से निर्मित है । आकाशकुसुम को सत्य सिद्ध करनेवाली हेतुसामग्री भी आकाशकुसुमवत् काल्पनिक ही हो सकती है। प्रस्तुत ग्रन्थ में मैंने इन समस्त काल्पनिक हेतुओं की कपोलकल्पितता का प्रमाणों और युक्तियों के द्वारा उद्घाटन कर सिद्ध किया है कि दिगम्बरजैनमत तीर्थंकरप्रणीत है और उतना ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन तीर्थंकर - परम्परा है। वैदिकपरम्परा के महाकाव्य एवं इतिहासग्रन्थ 'महाभारत' (५००-१०० ई० पू०) के अनुसार वह द्वापरयुगीन (आज से लगभग ८,६४,००० वर्ष पुराना), विष्णुपुराण के अनुसार प्रथम - स्वायंभुवमन्वन्तर - कालीन ( आज से लगभग ढाई करोड़ वर्ष प्राचीन) और ऐतिहासिक दृष्टि से सिन्धुसभ्यता- जितना ( ईसापूर्व २५०० वर्ष) प्राचीन है । वह ऋग्वेद, गौतमबुद्ध और ईसा से पूर्ववर्ती है। आचार्य कुन्दकुन्द भी ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्पन्न हुए थे और ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध तक विद्यमान रहे । तथा षट्खण्डागम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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