SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 553
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम अध्याय पुरातत्त्व में दिगम्बर- परम्परा के प्रमाण प्रथम प्रकरण श्वेताम्बर - परम्परा में नग्न जिनप्रतिमाओं का निर्माण असंभव १ शुभप्रभामंडल से तीर्थंकरों का नग्नत्व अदृश्य पुरातत्त्व में भी दिगम्बर - परम्परा की प्राचीनता के प्रमाण उपलब्ध होते हैं। वे प्रमाण हैं अभिलेख एवं उत्खनन आदि में प्राप्त हुई तीर्थंकरों की प्राचीन नग्न मूर्तियाँ । श्वेताम्बर - परम्परा में तीर्थंकरों की नग्न प्रतिमाओं का निर्माण असंभव है, क्योंकि वे मानते हैं कि यद्यपि तीर्थंकर कटिवस्त्र धारण नहीं करते, तथापि उनकी नग्नता दृष्टिगोचर नहीं होती। उनकी दृष्टि में नग्नता दिखना अश्लीलता और निर्लज्जता है, इससे स्त्रियों में कामविकार की उत्पत्ति हो सकती है । इसलिए श्वेताम्बरमत में यह कल्पना की गई है कि यद्यपि तीर्थंकर वस्त्रधारण नहीं करते, तथापि उनका शरीर शुभप्रभामंडल से आच्छादित हो जाता है, जिससे उनके गुह्यांग दिखाई नहीं देते। इसके अतिरिक्त वे एक इन्द्रोपनीत वस्त्र (देवदूष्य) कन्धे पर डालकर ही प्रव्रजित होते हैं, ताकि लोगों को यह उपदेश दिया जा सके कि मोक्षमार्ग सवस्त्र ही है। तीर्थंकरों के कन्धे पर देवदूष्य वस्त्र के स्थितिकाल के विषय में मतभेद है। सत्तरिसयठाणावृत्ति में कहा गया है कि भगवान् महावीर के कन्धे पर वह देवदूष्य वस्त्र एकवर्ष - एकमास तक स्थित रहा, पश्चात् गिर गया, किन्तु शेष तेईस तीर्थंकरों के कन्धे पर जीवनपर्यन्त स्थित रहा। इसके विपरीत श्री जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण का कथन है कि सभी तीर्थंकरों के स्कन्ध से वह कभी न कभी च्युत हो जाता है और तब वे सर्वथा अचेल हो १. "सक्को य लक्खमुल्लं सुरसं ठवदू सव्वजिणखंधे । वीरस्स वरिसमहियं सया वि सेसाण तस्स ठिई ॥ १५९ ॥ शक्रश्च लक्षमूल्यं देवदूष्यं वस्त्रं सर्वजिनस्कन्धे स्थापयति । तत् श्रीवीरस्य साधिकं वर्षं स्थितम् । उक्तं च कल्पसूत्रे 'संवच्छरं साहिअं मासं जाव चीवरधारी होत्थ त्ति ।' मासैकेनाधिकं वर्षं श्रीवीरेण वस्त्रं धृतम् । शेषजिनानां त्रयोविंशतेरपि तीर्थकृतां, सदाऽपि यावज्जीवमपि तस्य वस्त्रस्य स्थितिर्ज्ञेयेति ।" सत्तरिसयठाणा-वृत्ति / द्वार ७३ / अभिधान राजेन्द्र कोश / भाग ४ / पृष्ठ २२८६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy