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चतुर्थ अध्य
जैनेतर साहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों की चर्चा
प्रथम प्रकरण
वैदिकसाहित्य एवं संस्कृतसाहित्य में दिगम्बरजैन मुनि
दिगम्बरजैनमत की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए अब मैं जैनेतरसाहित्य से प्रमाण प्रस्तुत कर रहा हूँ। वे ऐसे प्रमाण हैं जो दिगम्बर - श्वेताम्बर परम्पराओं के ग्रन्थों की बजाय दोनों से भिन्न वैदिक और बौद्ध परम्पराओं के ग्रन्थों तथा संस्कृतसाहित्य में उपलब्ध हैं। इस कारण वे सर्वथा तटस्थ हैं । उनमें किसी प्रकार के पक्षपात और कपट की शंका के लिए स्थान नहीं है। उक्त ग्रन्थों तथा संस्कृतसाहित्य में जैनमत की उत्पत्तिविषयक घटनाएँ अवश्य साम्प्रदायिक विद्वेषवश असत्य और घृणोत्पादक रूप से गढ़ी गई हैं, किन्तु जैन मुनियों का जो रूप उनमें वर्णित है वह दिगम्बर और श्वेताम्बर जैनपरम्पराओं के अनुरूप है।
यहाँ वैदिकपरम्परा के ग्रन्थों को वैदिकसाहित्य और बौद्धपरम्परा के ग्रन्थों को बौद्धसाहित्य नाम से अभिहित किया जा रहा है। वैदिकपरम्परा का वर्तमान नाम हिन्दूपरम्परा है। हिन्दूसम्प्रदाय वेदों का अनुयायी है, अतः उसका वास्तविक नाम वैदिकसम्पद्राय ही है । 'हिन्दू' शब्द तो प्राचीनकाल में भारत में आनेवाले ईरानियों के द्वारा भारत की सिन्धु नदी को 'हिन्दू' उच्चरित किये जाने के कारण प्रचलित हुआ है। (देखिये, डॉ० रामधारी सिंह 'दिनकर' - लिखित 'संस्कृति के चार अध्याय ' / प्रकरण ३/ पृष्ठ ७८)। वैदिकपरम्परा के पुराणसाहित्य में वेदानुयायित्व और वेदबाह्यत्व के आधार पर ही धार्मिक सम्प्रदायों का विभाजन किया गया है। पुराणों में जैनों, बौद्धों और चार्वाकों को वेदबाह्य और अवैदिक कहा गया है तथा शेष प्राचीन भारतीय समुदाय को वैदिक । मत्स्यपुराण (३०० ई०) के 'जिनधर्मं समास्थाय वेदबाह्यं स वेदवित्' (२४ / २७) तथा 'वेदबाह्यान् परिज्ञाय' (२४ /४८) इन वाक्यों में जैनधर्म और जैनधर्मानुयायियों को 'वेदबाह्य' विशेषण दिया गया है। इसी सत्य का अनुसरण करते हुए डॉ० बलदेव उपाध्याय 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' (पृ. ५९) में लिखते हैं"राम वैदिक, बौद्ध तथा जैनधर्मों में समभाव से मर्यादा पुरुष माने गये हैं ।" इस तरह उपाध्याय जी ने हिन्दूसम्प्रदाय को वैदिकसम्प्रदाय के नाम से अभिहित किया
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