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अ०३/प्र०२
श्वेताम्बरसाहित्य में दिगम्बरमत की चर्चा / १९३ से सम्बद्ध हो, कोई भी अर्थ नहीं। यह उपचार के अर्थ और उसके नियमों पर दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जाता है। नीचे उन पर प्रकाश डाला जा रहा है५.१. उपचार का अर्थ
आलापपद्धतिकार आचार्य देवसेन ने उपचार का लक्षण इस प्रकार बतलाया है-“अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः। असद्भूतव्यवहार एव उपचारः।" (सूत्र २०७-२०८)।
अनुवाद-"किसी वस्तु पर अन्य वस्तु में प्रसिद्ध धर्म का आरोप करना असद्भूतव्यवहार है। असद्भूतव्यवहार ही उपचार कहलाता है।"
मीमांसक मुकुलभट्ट ने अभिधावृत्तिमातृका (पृष्ठ ७-८) में उपचार का लक्षण बतलाते हुए लिखा है
___ "द्विविध उपचारः शुद्धो गौणश्च । तत्र शुद्धो यत्र मूलभूतस्योपमानोपमेयभावस्याभावेनोपमानगत-गुणसदृश-गुणयोगलक्षणासम्भवात् कार्यकारणभावादिसम्बन्धाल्लक्षणया वस्त्वन्तरे वस्त्वन्तरमुपचर्यते। यथा 'आयुर्घतम्' इति। अत्र ह्यायुषः कारणे घृते तद्गतकार्यकारणभावलक्षणापूर्वकत्वेनायुष्ट्वकार्यं तच्छब्दश्चेत्युभयमुपचरितम्। तस्माच्छुद्धोऽयमुपचारः।"
"गौणः पुनरुपचारो यत्र मूलभूतोपमानोपमेयभावसमाश्रयेणोपमानगत-गुणसदृशगुणयोगलक्षणां पुरःसरीकृत्योपमेये उपमानशब्दस्तदर्थश्चाध्यारोप्यते । स हि गुणेभ्य आगतत्वाद् गौणशब्देनाभिधीयते। यथा 'गौर्वाहीकः' इति। अत्र ही गोगतजाड्यमान्द्यादिगुणसदृशजाड्यमान्द्यादियोगाद् वाहीके गोशब्द-गोत्वयोरुपचारः।" ३१
अनुवाद-"उपचार दो प्रकार का होता है : शुद्ध और गौण। जहाँ मूलभूत उपमानोपमेयभाव का अभाव होने से उपमानगत गणों के समान गण-योग असम्भव होता है, वहाँ कार्यकारणभावादि-सम्बन्ध के कारण अन्य वस्तु में अन्य वस्तु का उपचार किया जाता है, जैसे 'आयुघृतम्' (घी आयु है), यहाँ आयु और उसके कारणभूत घी इन दोनों में कार्यकारणभाव विद्यमान है, अतः घी में आयुष्ट्वकार्यरूप अर्थ तथा तद्वाचक शब्द दोनों का उपचार किया गया है। इसलिए यह शुद्धोपचार है।"
"जहाँ मूलभूत उपमानोपमेयभाव के होने से उपमानगत गुणों के समान गुणों का योग होता है, और इस कारण उपमेय पर उपमानशब्द तथा उसके अर्थ का अध्यारोप किया जाता है, वहाँ गौण उपचार होता है। वह उपमानशब्द गुणों के निमित्त से आरोपित
३१. मम्मटकृत काव्यप्रकाश की आचार्य विश्वेश्वरकृत हिन्दी व्याख्या में उद्धृत / द्वितीय
उल्लास / कारिका १०, सूत्र १३ / पृ.६० / प्रकाशक-ज्ञानमंडल वाराणसी । १९६० ई.।
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