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________________ १९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड १ अ०३/प्र०२ अप्रचलित हो जाता है। अतः 'नग्न' शब्द यदि जीर्ण-शीर्ण या अल्पवस्त्रधारी के अर्थ में रूढ़ हुआ होता, तो उसका निर्वस्त्ररूप अर्थ अप्रचलित हो जाता, किन्तु वह अप्रचलित नहीं हुआ। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि नग्न शब्द के निर्वस्त्ररूप मुख्यार्थ के प्रचलित होने से ही दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदायों का भेद प्रचलित है। इससे सिद्ध है कि 'नग्न' शब्द सवस्त्ररूप अर्थ में रूढ़ नहीं है। अतः श्री जिनभद्रगणी का यह कथन सत्य नहीं है कि सचेल पुरुष या स्त्री के लिए भी 'नग्न' शब्द का प्रयोग आगम और लोक में रूढ़ है। ४.२. नाग्न्यपरीषह के अयुक्तियुक्त होने का प्रसंग ___"यदि नग्न शब्द को 'सचेल' अर्थ में रूढ़ माना जाय, तो नाग्न्यपरीषह को सचेलत्वपरीषह मानना होगा। किन्तु सचेलमुनि को सचेलत्व परीषह संभव नहीं है, क्योंकि श्वेताम्बरशास्त्रों में वस्त्रधारण को तो ह्री, जुगुप्सा और शीतादि परीषहों के निवारण, लिंगोत्थान के प्रच्छादन एवं संयम की रक्षा का साधन माना गया है।३० अतः जो सचेलत्व, परीषह-निवारण का उपाय है, वह परीषह का कारण नहीं हो सकता। फलस्वरूप नाग्न्यपरीषह को सचेलत्वपरीषह मानने से और सचेलत्वपरीषह के संभव न होने से आगम में नाग्न्यपरीषह का उल्लेख अयुक्तिसंगत सिद्ध होता है। उसके उल्लेख की युक्तिसंगतता 'नग्न' शब्द को 'निर्वस्त्र' का ही वाचक मानने से सिद्ध होती है। अतः सिद्ध है कि 'नग्न' शब्द सचेल-अर्थ में रूढ़ नहीं है। मलधारी हेमचन्द्रसूरि के मत की अयुक्तिमत्ता उपचरित 'नग्न' शब्द दरिद्रादि अर्थ का प्रतिपादक विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्रगणी जी का कथन है कि सवस्त्र स्त्री या पुरुष को नग्न कहना लोकरूढ़ व्यवहार है, किन्तु वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्रसूरि कहते हैं कि यह उपचार है। (देखिये, इसी प्रकरण का शीर्षक ३.२)। उपचार लोकरूढ़ता के विरुद्ध होता है। सचेल साधु को उपचार से अचेल कहना संभव नहीं है। सचेल को उपचार से अचेल कहने पर 'अचेल' का अर्थ बदल जाता है। वह 'नग्न' अर्थ का वाचक न रहकर निर्लज्ज, असभ्य, दरिद्र आदि अर्थों का प्रतिपादक हो जाता है। उपचार के कुछ नियम होते हैं। वह किसी निमित्त या प्रयोजन के होने पर ही प्रवृत्त होता है और उपचरित शब्द से वही अर्थ व्यक्त हो सकता है, जो उसके मुख्यार्थ ३०. देखिये, आगे शीर्षक ४ एवं ५। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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