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________________ प्रकाशकीय जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर तक चौबीसों तीर्थंकरों ने पूर्ण अपरिग्रह के प्रतीकभूत एकमात्र अचेललिंग (नग्नमुद्रा) से जीव के मुक्त होने का उपदेश दिया था। अतः ऋषभादि तीर्थंकरों के समान अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर का अनुयायी श्रमण-संघ भी केवल अचेललिंगधारी था। इस कारण निर्ग्रन्थसंघ कहलाता था। किन्तु अन्तिम अनुबद्ध केवली श्री जम्बूस्वामी के निर्वाण (वीरनिर्वाण सं० ६२ = ईसापूर्व ४६५) के पश्चात् ही भगवान् महावीर का अनुयायी निर्ग्रन्थसंघ दो भागों में विभक्त हो गया। शीतादि-परीषहों की पीड़ा सहने में असमर्थ कुछ निर्ग्रन्थ साधुओं ने दिगम्बरवेश छोड़कर वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि ग्रहण कर लिये और यह मान्यता प्रचलित की, कि मनुष्य को केवल सचेललिंग से मुक्ति प्राप्त हो सकती है, अचेललिंग मुक्ति में बाधक है। सचेलमुक्ति की मान्यता के तर्क से उक्त साधुओं ने स्त्रीमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और गृहस्थमुक्ति की मान्यता का भी पोषण किया। अपनी सचेलमुक्ति की मान्यता को लोकप्रसिद्ध करने के लिए इस साधुवर्ग ने स्वयं को श्वेतपटसंघ या श्वेताम्बरसंघ नाम से प्रसिद्ध किया। ईसापूर्व चौथी शताब्दी में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय एकान्त-अचेलमुक्तिवादी मूल निर्ग्रन्थसंघ का पुनः विभाजन हुआ। इस बार १२ वर्ष के अकाल के कारण आहारप्राप्ति में होनेवाली कठिनाइयों के फलस्वरूप निर्ग्रन्थ (नग्न) साधुओं का एक वर्ग अर्धफालक (वस्त्र का आधा टुकड़ा) धारण करने लगा, जिससे वह अर्धफालकसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अर्धफालक साधु रहते तो नग्न थे, किन्तु अपने बायें हाथ पर सामने की ओर आधा वस्त्र लटकाकर गुह्यांग को छिपाते थे। भिक्षा के लिए वे पात्र भी रखते थे। आगे चलकर यह संघ श्वेताम्बरसंघ में विलीन हो गया। ईसा की पाँचवीं शती के प्रारंभ में श्वेताम्बर-श्रमणसंघ से यापनीयसंघ का आविर्भाव हुआ। यह दिगम्बरों के समान अचेललिंग और श्वेताम्बरों के समान सचेललिंग, दोनों से मुक्ति मानता था। तथापि इसकी आस्था श्वेताम्बर-आगमों एवं श्वेताम्बरीय मान्यताओं में ही थी। अतः यह श्वेताम्बरों के समान स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, केवलिकवलाहार, भगवान् महावीर के गर्भपरिवर्तन आदि बातों में विश्वास करता था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004042
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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