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१६०.
प्रस्तावना
इस तरह स्याद्वाद इस अनेकरूप अर्थको निर्दोष पद्धतिसे वचनव्यवहारमें उतारता है और प्रत्येक वाक्यकी सापेक्षता और आंशिक स्थितिका बोध कराता है।
इस स्याद्वादके स्वरूपको ठीक ठीक न समझकर 'शंकराचार्य गुणमति स्थिरमति धर्मकीर्ति प्रज्ञाकर अर्चट शान्तरक्षित कर्णकगोमि जयराशि व्योमशिव भास्कराचार्य विज्ञानभिक्षु श्रीकण्ठ रामानुजाचार्य वल्लभाचार्य और निम्बार्काचार्य आदिके द्वारा तथा इन प्राचीन आचार्योंका अनुसरणकर आधुनिक लेखकों के द्वारा की गई स्याद्वादसमालोचनाकी प्रत्यालोचना जैनदर्शन (पृ० ५६०-५१३) में देखना चाहिए । वहीं स्याद्वादमें दिये जानेवाले संशयादि दोषोंका परिहार भी किया गया है।
अन
४ निक्षेप मीमांसा अनन्तधर्मात्मक पदार्थको व्यवहारमें लानेके लिये किये जानेवाले प्रयत्नों में निक्षेपका भी स्थान है। जगत्में व्यवहार तीन प्रकारसे चलते हैं । कुछ व्यवहार ज्ञानाश्रयी कुछ शब्दाश्रयी और कुछ अर्थाश्रयी होते हैं। अनन्तधर्मा वस्तुको संव्यवहारके लिये उक्त तीन प्रकारके व्यवहारोंमें बाँटना निक्षेप है। निक्षेपका शाब्दिक अर्थ है रखना । यानी वस्तुके विवक्षित अंशको समझनेके लिये उसकी शाब्दिक आर्थिक सांकल्पिक आरोपित भूत भविष्यत् वर्तमान आदि अवस्थाओंको सामने रखकर प्रस्तुतकी ओर दृष्टि देना निक्षेपका लक्ष्य है। प्राचीनकालसे ही जैन परम्परामें पदार्थके वर्णनकी एक विशेष पद्धति रही है । सूत्रोंमें कोई एक शब्द आया कि उसको नाम स्थापना द्रव्य भाव काल और क्षेत्र आदिकी दृष्टिसे अनेकधा विश्लेषण करके सामने रखा जाता है। फिर समझाया जाता है कि इनमें अमुक अर्थ विवक्षित है। जैसे 'घोड़ेको लाओ' इस वाक्यमें 'घोड़े' का निक्षेप करके बताया जायगा कि जिसका 'घोड़ा' नाम रख दिया जाता है वह नाम घोड़ा है। जिस तदाकार खिलौनेको 'घोड़ा' कहते हैं वह सद्भावस्थापना घोड़ा है, जिस अतदाकार शतरंजके मोहरेको घोड़ा कहते हैं वह असद्भावस्थापना घोड़ा है । जो जीव मरकर आगे घोड़ा होगा वह द्रव्यघोड़ा है। जो आज वस्तुतः घोड़ा है वह भाव घोड़ा है। इनमें स्थूलरूपसे नामघोड़ा शब्दात्मक व्यवहारके लिये आधार होता है को स्थापना घोडा ज्ञानात्मक व्यवहारके लिये और द्रव्य और भावघोडा अर्थाश्रयी व्यवहारके लिये आधार बनते हैं। यदि कोई बालक घोड़ेके लिये रोता है तो वहाँ खिलौना घोड़ा लाया जाता है और शतरंजके समय वह मुहराघोड़ा ही पकड़ा जाता है। सवारीके समय भावघोड़ा ही उपपुक्त होता है और किसी सांकेतिक व्यवहारके लिये नामघोड़ेकी उपयोगिता होती है। तात्पर्य यह कि पदार्थके विवक्षित अंशको सटीक पकड़नेके लिए उसके संभाव्य सभी विकल्पोंको सामने रखा जाता है, फिर कहा जाता है कि इनमें 'अमुक अंश' विवक्षित है। धवला टीका में निक्षेपविषयक यह प्राचीन गाथा उद्धृत है जो किंचित् पाठभेदके साथ अनुयोगद्वार सूत्र में भी उपलब्ध है
"जत्थ बहुं जाणिज्जा अवरिमिदं तत्थ णिक्खिवे णियमा।
जत्थ बहुवं ण जाणदि चउट्ठयं णिक्खिवे तत्थ ॥" अर्थात् जहाँ जितना बहुत जाने वहाँ उतने ही प्रकारसे पदार्थोंका विश्लेषण या निक्षेप करना चाहिये । जहाँ अधिक न जाने वहाँ कमसे कम चार प्रकारसे पदार्थोंका निक्षेप करना चाहिए। यही कारण है कि-मूलाचार में 'सामायिक' के तथा त्रिलोकप्रज्ञप्ति में 'मङ्गल' के नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भावके भेदसे छह निक्षेप किये गये हैं। आवश्यक नियुक्ति में इन छह निक्षेपोंमें 'वचन' को ओर जोड़कर सात
(१) जयधवला भाग १ प्रस्ता० पृ० १००-1 (२)प्रथम पु. पृ० ३०।। (३) षडावश्यकाधिकार गा० १७। (४) गा० १।१८। (५) गा० १२९
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