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प्रस्तावना
उपादानके आधारसे पकड़ता है वह अन्य पदार्थोंके अस्तित्वका निषेध नहीं करता जब कि वेदान्त या विज्ञानाद्वैता परमार्थ अन्य पदार्थों के अस्तित्वको ही समाप्त कर देता है । बुद्धकी धर्मदेशनाको भी परमार्थसत्य और लोकसंवृतिसत्य इस दो रूपसे' घटानेका प्रयत्न हुआ है।
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निश्चयनय परनिरपेक्ष स्वस्वभावका वर्णन करता है। जिन पर्यायों में पर निमित्त पड़ जाता है उन्हें वह स्वकीय नहीं कहता । परजन्य पर्यायोंको पर मानता है जैसे जीवके रागादिभावों में यद्यपि आत्मा स्वयं उपादान होता है, वही राग-रूपसे परिणति करता है, परन्तु चूँकि ये भाव कर्मनिमित्तक हैं अतः इन्हें वह अपने आत्मा नहीं मानता । अन्य आत्माएँ और जगत् के समस्त अजीवोंको तो वह अपना मान ही नहीं सकता । जिन आत्मविकासके स्थानोंमें परका थोड़ा भी निमित्त होता है उन्हें भी वह 'पर' के खाते में ही डाल देता है । इसीलिए समयसार में जब आत्मा के वर्ण रस स्पर्श आदि प्रसिद्ध पररूपोंका निषेध किया है तो उसी झोंकमें गुणस्थान आदि स्वधर्मौका भी परनिमित्तक होनेसे निषेध कर दिया है । दूसरे शब्दों में निश्चयनय अपने मूललक्ष या आदर्शका खालिस वर्णन करता है जिससे साधकको भ्रम न हो और वह भटक न जाय । इसलिए आत्माका नैश्चयिक वर्णन करते समय शुद्ध ज्ञायक रूप ही आत्माका स्वरूप प्रकाशित किया गया है । बन्ध और रागादिको भी उसी एक 'पर' कोटिमें डाल दिया है जिसमें पुद्गल आदि प्रकट परपदार्थ पड़े हुए हैं । परसापेक्ष पर्यायोंको ग्रहण करनेवाला व्यवहार नय होता है । पर द्रव्य तो स्वतंत्र हैं अतः उन्हें अपना कहनेका प्रश्न ही नहीं उठता ।
पंचाध्यायीका नय विभाग - पंचाध्यायीकार अभेदग्राहीको द्रव्यार्थिक और निश्चय नय कहते हैं तथा किसी भी प्रकार के भेदको ग्रहण करनेवाले नयको पर्यायार्थिक और व्यवहारनय कहते हैं । इनके मतसे" निश्चयनयके शुद्ध और अशुद्ध भेद करना ही गलत है । ये वस्तुके सद्भूत भेदको व्यवहारनयका ही विषय मानते हैं । अखंड वस्तुमें किसी भी प्रकारका द्रव्य क्षेत्र काल और भाव आदिकी दृष्टि से होनेवाला भेद पर्यायार्थिक या व्यवहारनयका विषय होता है। इनकी दृष्टिमें समयसारगत परनिभित्तक-व्यवहार ही नहीं किन्तु स्वगत भेदभी व्यवहारनयकी सीमा में ही होता है । व्यवहारनय के दो भेद हैं एक सद्भूत व्यवहारनय और दूसरा असद्भूत व्यवहारनय । वस्तुमें अपने गुणोंकी दृष्टिसे भेद करना सद्भूत व्यवहार है । अन्य द्रव्य गुणोंकी बलपूर्वक अन्यत्र योजना करना असद्भूत व्यवहार है जैसे वर्णादिवाले मूर्त पुद्गल कर्मद्रव्य के संयोगसे होनेवाले क्रोधादिमूर्त भावोंको जीवके कहना । यहाँ क्रोधादिमें जो पुद्गलद्रव्यके मूर्तत्वका आरोप किया गया है - वह असद्भूत है और गुणगुणीका जो भेद विवक्षित है वह व्यवहार है । सद्भूत और असद्भूत व्यवहार दोनों ही उपचरित और अनुपचरितके भेदसे दो दो प्रकारके होते हैं । 'ज्ञान जीव का है' यह अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय है । 'अर्थविकल्पात्मक ज्ञान प्रमाण है और वही जीवका गुण है' यह उपचरित सद्भूत व्यवहारनय है । इसमें ज्ञानमें अर्थविकल्पात्मकता उपचरित है और गुण- गुणीका भेद व्यवहार है । अनगार धर्मामृत (अध्याय १ श्लो० १०४) आदि में 'केवल ज्ञान जीवका है' यह अनुपचरित सद्भूत व्यवहारका उदाहरण दिया है। उसमें यह दृष्टि है कि शुद्धगुणका कथन अनुपचरित तथा अशुद्धगुणका कथन उपचरित है। अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय 'अबुद्धिपूर्वक होनेवाले क्रोधादि भावोंको जीवका कहता है और उपचरित सद्भूत व्यवहारनय उदयमें आये हुए अर्थात् प्रकट अनुभवमें आनेवाले क्रोधादि भावोंको जीवके कहता है । पहिलेमें वैभाविकी शक्तिका आत्मासे अभेद माना है । अनगार धर्मामृतमें 'शरीर मेरा है' यह अनुपचरित असद्भूत व्यवहार है तथा 'देश मेरा है' यह उपचरित असद्भूत
(१) "द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना ।
लोकसंवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थतः ॥ " - माध्यमिककारिका आर्यसत्यपरीक्षा श्लो० ८ । (२) "जेव य जीवहाणा ण गुणहाणा य अस्थि जीवस्स ।
जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स पज्याया ॥ ५५ ॥” - समयसार ।
(३) पंचाध्यायी १६५९-६१ । (४) पंचाध्यायी १।५२५९।
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