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विषयपरिचय: नयमीमांसा
દેશરે
अनुसार वाच्यभूत अर्थ में पर्यायभेद या शक्तिभेद मानना ही चाहिये । यदि एकरूप ही पदार्थ हो तो उसमें विभिन्न क्रियाओंसे निष्पन्न शब्दों का प्रयोग ही नहीं हो सकेगा । इस तरह समभिरूढनय पर्यायवाची शब्दों की अपेक्षासे भी अर्थभेद स्वीकार करता है ।
पर्यायवाची शब्दभेद मानकर भी अर्थभेद नहीं मानना समभिरूढनयाभास है । जो मत पदार्थको एकान्तरूप मानकर भी अनेक शब्दोंका प्रयोग करते हैं उनकी यह मान्यता तदाभास है ।
एवम्भूत तदाभास - ' एवम्भूत नय पदार्थ जिस समय जिस क्रिया में परिणत हो उस समय उसी क्रियासे निष्पन्न शब्द की प्रवृत्ति स्वीकार करता है । जिस समय शासन कर रहा हो उसी समय उसे शक्र कहें इन्दनक्रिया के समय नहीं । जिस समय घटनक्रिया हो रही हो उसी समय उसे घट कहना अन्य समय में नहीं । समभिरूढनय उस समय क्रिया हो या न हो पर शक्तिकी अपेक्षा अन्य शब्दोंका प्रयोग भी स्वीकार कर लेता था परन्तु एवम्भूतनय ऐसा नहीं करता । क्रियाक्षण में ही कारक कहा जाय अन्य क्षणमें नहीं । पूजा 1 करते समय ही पुजारी कहा जाय अन्य समयमें नहीं और पूजा करते समय अन्य शब्द भी नहीं कहा जाय । इस तरह समभिरूढ नयके द्वारा वर्तमान पयाय में शक्तिभेद मानकर जो अनेक पर्याय शब्दों के प्रयोगकी स्वीकृति थी वह इसकी दृष्टिमें नहीं है । यह तो क्रियाका धनी है । वर्तमान में शक्तिकी अभिव्यक्ति देखता है । तक्रियाकालमें अन्य शब्दका प्रयोग करना या उस शब्दका प्रयोग नहीं करना एवम्भूताभास है। इस नयको व्यवहारकी कोई चिन्ता नहीं है । हाँ कभी-कभी इससे व्यवहारकी अनेक गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं। जैसे न्यायाधीश जब न्यायकी कुर्सी पर बैठता है तभी न्यायाधीश है, अन्यकालमें भी यदि उसके सिरपर न्यायाधीशत्व सवार हो तो गृहस्थी चलना कठिन हो जाय । अतः व्यवहारको जो सर्वनयसाध्य कहा है वह ठीक ही कहा है । अर्थनय शब्दन - इन सात नयोंमें ऋजुसूत्र पर्यन्त चार नय अर्थग्राही होनेसे अर्थनय हैं । यद्यपि नैगमनय संकल्पग्राही होनेसे अर्थकी सीमासे बाहर हो जाता था पर नैगमका विषय भेद और अभेद दोनों को ही मानकर उसे अर्थग्राही कहा गया है । शब्द आदि तीन नय पदविद्या अर्थात् व्याकरणशास्त्रशब्दशास्त्रकी सीमा और भूमिकाका वर्णन करते हैं अतः ये शब्दनय हैं ।
द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक विभाग- नैगम संग्रह और व्यवहार तीन द्रव्यार्थिकनय हैं और ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायार्थिक हैं | प्रथमके तीन नयों में द्रव्यपर दृष्टि रहती है जब कि शेष चार नयोंमें वर्तमानकालीन पर्यायपर ही विचार चालू होता है । यद्यपि व्यवहारनय में भेद प्रधान है और भेदको भी कहीं-कहीं पर्याय कहा है परन्तु व्यवहारनय एकद्रव्यगत ऊर्ध्वता सामान्य में कालिक पर्यायोंका अन्तिम भेद नहीं करता । - उसका क्षेत्र अनेक द्रव्यों में भेद करनेका मुख्यरूपसे है । वह एक द्रव्यकी पर्यायों में भेद करके भी अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायतक नहीं पहुँच पाता अतः इसे शुद्ध पर्यायाथिक में शामिल नहीं किया है। जैसे कि नैगमनय कभी पर्यायकी और कभी द्रव्यको विषय करनेके कारण उभयावलम्बी होनेसे द्रव्यार्थिकमें ही अन्तर्भूत है उसी तरह व्यवहारनय भी भेदप्रधान होनेपर भी चूँकि द्रव्यको भी विषय करता है अतः वह भी द्रव्यार्थिककी ही सीमा में है। ऋजुसूत्रादि चार नय तो स्पष्ट ही एक समयवर्ती पर्यायको सामने रखकर विचार चलाते हैं अतः पर्यायाथिंक हैं। आ० जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ऋजुसूत्रको भी द्रव्यार्थिक मानते हैं । (विशेषा० गा० ७५,७७, २२६२)
निश्चय और व्यवहार - अध्यात्मशास्त्रमें नयोंके निश्चय और व्यवहार ये दो भेद प्रसिद्ध है । निश्चयनयको भूतार्थ और व्यवहारनयको अभूतार्थ भी वहीं बताया है । जिस प्रकार अद्वैतवादमें पारमार्थिक और व्यावहारिक दो रूपमें, शून्यवाद या विज्ञानवादमें परमार्थ और सांवृत दो रूपमें या उपनिषदोंमें सूक्ष्म और स्थूल दो रूपों में तत्त्व के वर्णनकी पद्धति देखी जाती है उसी तरह अध्यात्म में भी निश्चय और व्यवहार इन दो प्रकारोंको अपनाया है । अन्तर इतना ही है कि जैन अध्यात्मका निश्चयनय वास्तविक स्थितिको
(१) “एवम्भूतनयः क्रियार्थवचनः " - सिद्धिवि० ११।३१ | अकलङ्क प्र० टि० पृ० १४७ । (२) " ... अर्थाश्रयाः । चत्वारोऽत्र च नैगमप्रभृतयः शेषास्त्रयं शब्दतः ॥” – सिद्धिवि० १.०।१ ।
लघी • श्लो० ७२ । (३) समयसार गा० ११
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