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प्रस्तावना
[कठोप० ४।११] कहकर सर्वथा निराकरण कर दिया है । संग्रहनयमें अभेद मुख्य होनेपर भी भेदका निराकरण नहीं किया जाता, वह गौण हो जाता है, उसके अस्तित्वसे इनकार नहीं किया जा सकता। अद्वयब्रह्मवादमें कारक और क्रियाओं के प्रत्यक्षसिद्ध भेदका निराकरण हो जाता है । कर्मद्वैत फलद्वैत लोकद्वैत और विद्या-अविद्याद्वैत आदि सभीका लोप इस नयमें प्राप्त होता है। अतः सांग्रहिक व्यवहारके लिये भले ही परसंग्रह नय जगतके समस्त पदार्थोंको 'सत्' कह ले पर इससे प्रत्येक द्रव्यके मौलिक अस्तित्वका लोप नहीं हो सकता । विज्ञानकी प्रयोगशाला प्रत्येक अणुका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करती है। अतः संग्रह नयकी उपयोगिता अभेदव्यवहारके लिये है, वस्तुस्थितिका लोप करनेके लिये नहीं ।
. शब्दाद्वैत भी संग्रहाभास हैं। वह इसलिये कि इसमें भेदका और द्रव्यों के उस मौलिक अस्तित्वका निराकरण कर दिया जाता है जो अस्तित्व प्रमाणसे प्रसिद्ध है।
__ व्यवहार-व्यवहाराभास-संग्रहनयके द्वारा संगृहीत अर्थमें विधिपूर्वक अविसंवादी और वस्तुस्थितिमूलक भेद करनेवाला व्यवहारनय है। यह व्यवहारनय लोकप्रसिद्ध व्यवहारका अविरोधी होता है। लोकव्यवहारविरुद्ध, विसंवादिनी और वस्तुस्थितिकी उपेक्षा करनेवाली भेदकल्पना व्यवहाराभास है। लोकव्यवहार अर्थ शब्द और ज्ञान तीनोंसे चलता है। जीवव्यवहार जीवअर्थ जीवविषयक ज्ञान और जीवशब्द तीनोंसे सधता है । वस्तु उत्पादव्ययध्रौव्यवाली है, द्रव्य गुणपर्यायवाला है, जीव चैतन्यरूप है इत्यादि भेदक वाक्य प्रमाणाविरोधी हैं तथा लोकव्यवहारमें अविसंवादी होनेसे प्रमाण हैं । ये वस्तुगत अभेदका निराकरण न करनेके कारण पूर्वापराविरोधी होनेसे सुव्यवहारके विषय हैं। सौत्रान्तिकका जड़ या चेतन सभी पदार्थोंको सर्वथा क्षणिक निरंश परमाणुरूप मानना, योगाचारका क्षणिक अविभाग विज्ञानाद्वैत मानना. माध्यमिकका निरालम्बनज्ञान या सर्वशून्यता स्वीकार करना प्रमाणविरोधी और लोकव्यवहारमें विसंवादक होनेसे व्यवहाराभास हैं। जो भेद वस्तुके अपने निजी मौलिक एकत्वकी अपेक्षा रखता है वह व्यवहार है और अभेदका सर्वथा निराकरण करनेवाला व्यवहाराभास है। दो स्वतन्त्र द्रव्योंमें वास्तविक भेद है, उनमें सादृश्यके कारण अभेद आरोपित होता है जब कि एक द्रव्यगत गुण और धोंमें वास्तविक अभेद है, उनमें भेद उस अखण्ड वस्तुका विश्लेषण कर समझनेके लिये कल्पित होता है। इस मूल वस्तुस्थितिको लाँघकर भेदकल्पना या अभेदकल्पना करना तदाभास होती है पारमार्थिक नहीं। विश्वके अनन्त द्रव्योंका अपना व्यक्तित्व मौलिक भेदपर ही टिका हुआ है। एक द्रव्यके गुणादिका भेद वस्तुतः मिथ्या कहा जा सकता है और उसे अविद्याकल्पित कहकर प्रत्येक द्रव्यके अद्वैत तक पहुँच सकते हैं, पर अनन्त अद्वैतोंमें तो क्या, दो अद्वैतोंमें भी अभेदकी कल्पना उसी तरह औपचारिक है जैसे सेना वन प्रान्त या देश आदिकी कल्पना । वैशेषिककी प्रतीतिविरुद्ध द्रव्यादिभेदकल्पना भी व्यवहाराभासमें आ सकती है।
ऋजुसूत्र-तदाभास-व्यवहारनय तक भेद और अभेदकी कल्पना मुख्यतया अनेक द्रव्योंको सामने रखकर चलती है। किन्तु एक द्रव्यमें भी कालक्रमसे पर्यायभेद होता है और वर्तमान क्षणका अतीत और अनागतसे सम्बन्ध नहीं है यह विचार ऋजुसूत्र नय प्रस्तुत करता है। यह नया वर्तमानक्षणवर्ती अर्थर्यायको ही विषय करता है । अतीत चूँकि विनष्ट है और अनागत अनुत्पन्न है, अतः उसमें पर्यायव्यवहार ही नहीं हो सकता । इसकी दृष्टि से नित्य कोई वस्तु नहीं है और स्थूल भी वास्तविक नहीं है । सरल सूतकी तरह यह नय" केवल वर्तमान पर्यायको स्पर्श करता है।
(१) "संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः"-सर्वार्थसि० १॥३३ । (२) "कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् ।
प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् ॥"-त० श्लो० पृ० २७१ । (३) "पच्चुप्पन्नगाही उज्जुसुओ णयविही मुणयन्वो।"-अनुयोग० द्वा० ४ । अकलङ्कग्रन्थत्रय टि. पृ० १४६ ।
'सूत्रपातवद् ऋजुसूत्रः"-राजवा० १३३ ।
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