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विषयपरिचय : नयमीमांसा
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'सांख्यका ज्ञान सुख आदिको आत्मासे भिन्न मानना नैगमाभास है। सांख्यका कहना है कि त्रिगुणात्मक प्रकृतिके ही सुख और ज्ञानादिक धर्म हैं, वे उसीमें आविर्भूत और तिरोहित होते रहते हैं। इसी प्रकृतिके संसर्गसे पुरुषमें ज्ञानादिकी प्रतीति होती है। प्रकृति इस ज्ञान सुखादिरूप व्यक्त-कार्यकी दृष्टिसे दृश्य है तथा अपने कारणरूप-अव्यक्त स्वरूपसे अदृश्य है । पुरुष चेतन अपरिणामी कूटस्थ नित्य है। चैतन्य बुद्धिसे भिन्न है, अतः बुद्धि चेतनपुरुषका धर्म नहीं है। इस तरह सांख्यका ज्ञान और आत्मामें सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है; क्योंकि चैतन्य और ज्ञानमें कोई भेद नहीं है। बुद्धि उपलब्धि चैतन्य और ज्ञान आदि सभी पर्यायवाची हैं। सुख और ज्ञानादिको सर्वथा अनित्य और पुरुषको सर्वथा नित्य मानना भी उचित नही है; क्योंकि कूटस्थ नित्य पुरुषमें प्रकृतिसंसर्गसे भी बन्ध मोक्ष और भोग आदि नहीं बन सकते । अतः पुरुषको परिणामी नित्य ही मानना होगा तभी उसमें बन्धमोक्षादि व्यवहार घट सकते हैं। तात्पर्य यह कि अभेदनिरपेक्ष सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है।
संग्रह-संग्रहाभास-अनेक पर्यायोंको एक द्रव्यरूपसे या अनेक द्रव्यों को सादृश्य-मूलक एकत्वरूपसे अभेदग्राही संग्रह नय होता है। इसकी दृष्टि में विधि ही मुख्य है । द्रव्यको छोड़कर पर्याय हैं ही नहीं। यह दो प्रकारका होता है-एक परसंग्रह और दूसरा अपरसंग्रह । परसंग्रहमें सत् रूपसे समस्त पदार्थोंका संग्रह किया जाता है तथा अपरसंग्रहमें एक द्रव्यरूपसे समस्त पर्यायोंका, द्रव्यरूपसे समस्त द्रव्योंका, गुणरूपसे समस्त गुणोंका, गोत्वरूपसे समस्त गायोंका तथा मनुष्यत्वरूपसे समस्त मनुष्योंका इत्यादि संग्रह किया जाता है। यह अपरसंग्रह तबतक चलता है जबतक भेदमूलक व्यवहार अपनी चरमकोटि तक नहीं पहुँच जाता अर्थात् जब व्यवहारनय भेद करते-करते ऋजुसूत्र नयकी विषयभूत एक वर्तमानकालीन क्षणवर्ती अर्थपर्यायतक पहुँचता है यानी संग्रह करनेके लिये दो रह ही नहीं जाते तब अपरसंग्रहकी मर्यादा समाप्त हो जाती है। यद्यपि परसंग्रहके बाद और ऋजुसूत्र नयसे पहिले अपरसंग्रह और व्यवहार नयका सामान्य क्षेत्र है पर दृष्टिमें भेद है। जब अपरसंग्रहमें सादृश्यमूलक या द्रव्यमूलक अभेददृष्टि मुख्य है और इसीलिये वह एकत्व लाकर संग्रह करता है तब व्यवहारनयमें भेदकी ही प्रधानता है, वह पर्याय-पर्यायीमें भी भेद ही डालता है । परसंग्रहनयकी दृष्टिमें सद्रूपसे सभी पदार्थ एक हैं, उनमें किसी प्रकारका भेद नहीं है। जीव-अजीव आदि सभी सद्रपसे अभिन्न हैं। जिस प्रकार एक चित्रज्ञान अपने अनेक नीलादि आकारों में व्याप्त है उसी तरह सत्त्व सभी पद में व्याप्त है, जीव-अजीव आदि सभी उसके भेद हैं। कोई भी ज्ञान सन्मात्रतत्त्वको जाने बिना भेदोंको नहीं जान सकता । कोई भी भेद सन्मात्रसे बाहर अर्थात् असत् नहीं है। प्रत्यक्ष चाहे चेतन-सुखादिमें प्रवृत्ति करे या बाह्य अचेतन नीलादि पदार्थों को जाने, वह सद्रपसे अभेदांशको विषय करता ही है। इतना ध्यान रखनेकी बात है कि-एकद्रव्यमूलक पर्यायोंके संग्रहके सिवाय अन्य सभी प्रकारके संग्रह सादृश्यमूलक एकत्वका आरोप करके ही होते हैं और वे केवल संक्षिप्त शब्दव्यवहारकी सुविधाके लिये हैं। दो स्वतन्त्र द्रव्योंमें चाहे वे सजातीय हों या विजातीय वास्तविक एकत्व आ ही नहीं सकता । संग्रहनयकी इस अभेद दृष्टिसे सीधी टक्कर लेनेवाली बौद्धकी भेददृष्टि है, जिसमें अभेदको कल्पनात्मक कहकर उसका वस्तुमें कोई स्थान ही नहीं रहने दिया है । इस आत्यन्तिक भेददृष्टिके कारण ही बौद्ध अभेददृष्टिके विषयभूत अवयवी और स्थूल आदि पदार्थोंकी सत्ता ही नहीं मानते । नित्यांश कालिक अभेदके आधारपर स्थिर है। क्योंकि जब वही एक द्रव्य त्रिकालानुयायी हो तभी वह नित्य कहा जा सकता है। अवयवी और स्थूलता दैशिक अभेदके आधारसे माने जाते हैं । जब एक वस्तु अनेक अवयवोंमें कथञ्चित्तादात्म्यरूपसे व्याप्ति रखे तभी वह अवयवी व्यपदेश पा सकती है । स्थूलतामें भी अनेकप्रदेशव्यापित्वरूप दैशिक अभेददृष्टि ही अपेक्षणीय होती है।
___ इस नयकी दृष्टिसे कह सकते हैं विश्व सन्मात्ररूप है, एक है, अद्वैत है क्योंकि सद्रूपसे चेतन और अचेतनमें कोई भेद नहीं है । अद्वयब्रह्मवाद संग्रहाभास है क्योंकि इसमें भेदका "नेह नानास्ति किञ्चन"
(१) सिद्धिवि० १०१०।। (२) सिद्धिवि. १०११३ । "शुद्धं द्रव्यमभिप्रैति संग्रहस्तदभेदतः।"-लघी० श्लो. ३२ । (३) “सर्वमेकं सदविशेषात्"-तत्त्वार्थभा० १॥३५। (४) सिद्धिवि० १०॥१७,१८ ।
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