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प्रस्तावना
स्थितिके मूल दार्शनिक सिद्धान्तके विरुद्ध है। यह तो चार्वाक जैसा ही हुआ। जिस प्रकार चार्वाक चित्त या जीवका उच्छेद शरीरके साथ ही स्वीकार करता है उसी प्रकार बौद्धोंने भी उसका संसारके साथ उच्छेद मान लिया है। अन्तर यह अवश्य है कि चार्वाक उसका प्रारम्भ गर्भसे मानता है तो ये उसका 'प्रारम्भ' न मानकर उसे अनादि मानते हैं । पर आत्मा या चित्त न चार्वाकके मतमें मौलिक तत्त्व हुआ और न प्रदीपनिर्वाणवादी बौद्धों के यहाँ । मैं पहिले लिख आया हूँ कि बौद्धोंमें जब दार्शनिक वाद-विवादका युग आया
और चारों ओरसे उनपर इस उच्छेदवाद के दूषणोंकी बौछार पड़ने लगी तो शान्तरक्षित और तत्पूर्ववर्ती कुछ आचार्योंने मुक्ति में भी शुद्धचित्तकी सत्ता स्वीकार करनेके मतका प्रतिपादन किया। तत्त्वसंग्रह पंजिका (पृ० १०४) में आ० कमलशील यह प्राचीन श्लोक उदधृत करते हैं---
"चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् ।
तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥" अर्थात् जो चित्त रागादिक्लेशसे वासित होकर संसार कहलाता है वही जब रागादिक्लेशोंसे रहित हो जाता है तो भवान्त कहा जाता है। इतना ही नहीं शान्तरक्षित तो अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं कि
"मुक्तिर्निर्मलता धियः"-अर्थात् बुद्धिकी निर्मलता ही मुक्ति है। इस चित्तशुद्धिरूप मुक्तिका प्रतिपादन करनेपर ही उनकी दार्शनिक वाद-विवादमें रक्षा हो सकी है।
देहसे भिन्न आत्माकी सत्ता सिद्ध करने के लिए 'अहम्' प्रत्यय ही सबसे बड़ा प्रमाण है, जो 'अहं सुखी, अहं दुःखी' आदिके रूपमें प्रत्येक प्राणीके अनुभवमें आता है। मनुष्यों के अपने-अपने जन्मान्तरीय संस्कार होते हैं, जिनके अनुसार वह इस जन्ममें अपना विकास करता है। जन्मान्तर के स्मरणकी अनेकों घटनाएँ सुनी गयी हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि इस वर्तमान शरीरको छोड़कर आत्मा नये धारण करता है । यह ठीक है कि इस कर्म-परतन्त्र आत्माकी स्थिति बहुत कुछ शरीर और शरीरके अवयवों के अधीन हो रही है, किसी रोगसे मस्तिष्कके विकृत हो जानेपर समस्त अर्जित ज्ञान विस्मृतिके गर्भमें चला जाता है, रक्तचापकी कमीबेसी होनेपर उसका हृदयकी गति और मनोभावोंके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ता है। आधुनिक भूतवादियोंने भी (Thyroid and Pituitary) थाइराइड और पिचुयेटरी ग्रन्थियोंसे उत्पन्न होनेवाले (Horn.one) नामक द्रव्यके कम हो जानेपर ज्ञानादिगुणोंमें कमी आ जाती है, यह सिद्ध किया है। किन्तु यह सब देहपरिमाणवाले स्वतन्त्र आत्मतत्त्वके माननेपर ही सम्भव हो सकता है। क्योंकि संसारीदशामें आत्मा इतना परतन्त्र है, कि उसके अपने निजी गुणोंका विकास भी इन्द्रियादिके सहारेके बिना नहीं हो पाता । ये भौतिक द्रव्य उसके गुणविकासमें उसी तरह सहारा देते हैं, जैसे कि झरोखेसे देखनेवाले पुरुषको देखनेमें झरोखा सहारा देता है। कहीं-कहीं जैन ग्रन्थों में जीवके स्वरूपका वर्णन करते समय 'पुद्गल' विशेषण भी दिया है, यह एक नई बात है। वस्तुतः वहाँ उसका तात्पर्य इतना ही है कि जीवका वर्तमान विकास और जीवन जिन आहार, शरीर, इन्द्रिय, भाषा, मन और श्वासोच्छासके सहारे होता है, वे सब पौद्गलिक हैं । इस तरह निमित्तकी दृष्टिसे उसमें पुद्गल विशेषण दिया गया है, स्वरूपकी दृष्टिसे नहीं। आत्मवादके प्रसङ्गमें जैन-दर्शनका उसे शरीररूप न मानकर पृथक् तत्त्व स्वीकार करके शरीरपरिमाण मानना अपनी अनोखी सूझ है, और इससे भौतिकवादियों के द्वारा दिये जानेवाले आक्षेपोंका निराकरण हो जाता है।
___ इच्छा, संकल्पशक्ति और भावनाएँ केवल भौतिक मस्तिष्ककी उपज नहीं कही जा सकतीं, क्योंकि किसी भी भौतिक यन्त्रमें स्वयं चलने, टूटनेपर अपने आपको सुधारने और अपने सजातीयको उत्पन्न करने की क्षमता नहीं देखी जाती। अवस्थाके अनुसार बढ़ना, घावका अपने आप भर जाना, जीर्ण हो जाना इत्यादि ऐसे धर्म हैं, जिनका समाधान केवल भौतिकतासे नहीं हो सकता। हजारों प्रकारके छोटे-बड़े यत्रोंका आविष्कार, जगत्के विभिन्न कार्य-कारणभावोंका स्थिर करना, गणितके आधारपर ज्योतिर्विद्याका विकास
(१) तत्त्वसं० पृ० १८४॥ (२) "जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो।"-अंगप० २।६६ ।
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